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१ देव-विहारी तथा दास स्याम पिछौरी चीर में पेखि स्याम-तन लागि लगो महाउर आँगुरिन लगी महा उर आगि । __ दास मोहूँ दीजै मोष, ज्यों अनेक अधमन दयो । ओ बाँधे ही तोष, तो बाँधो अपने गुनन । हिारी ज्यों गुनहीं बकसीसकै ज्यो गुनही गुन हनि , तो निर्गुनहीं बाँधिए दीन-बंधु, जन दीन । दास नितप्रति एकत ही रहत, बैस, बरन, मन एक ; चहियत जुगल केसोर लखि लोचन जुगल अनेक। विहारी सोभा सौभा-सिधु को दै दृग लखत बनै न ; अहह दई ! किन करि दई भय मन प्रापति नैन । दास दास सुघर सौते बस र () सुघर सौति बस पिय सुनत दुलहिनि दुगुन हुलास; लखी सखी तन दीठि कर सगरब, सलज, सहास । विहारी पिय आगम परदेस ते सौति सदन मैं जोय ; हरष, गरब, अमरष भरी रस-रिस गई समोय । दास चित-बित बचत न, हरत हठि लालन-हग बरजोर ; सावधान के बटपरा, ये जागत के चौर । विहार