देव और विहारी विशेषता से पाया जाता है। मराठी के प्रसिद्ध लेखक, चिपलूणकर की सम्मति भी हमारे इस कथन के पक्ष में है। महामति पोप अपने "समालोचना"-शीर्षक निबंध में यही बात कहते हैं। ऐसी दशा में यह बात निर्विवाद सिद्ध है कि सदा से सब भाषाओं में शब्द-मधुरता काव्य की सहायता करनेवाली मानी गई है । अतएव जिस भाषा में सहज माधुरी हो, वह कविता के लिये विशेष उपयुक्त होगी, यह बात भी निर्विवाद सिद्ध हो गई।
- इसके सिवा जो और रह गई अर्थात् पद-लालित्य, मृदुता, मधुरता...
...... इत्यादि, सो सब प्रकार से गौण ही हैं। ये सब काव्य की शोभा निस्संदेह बढ़ाती हैं, पर ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि काव्य की सोभा इन्हीं पर है। (निबंधमालादर्श, पृष्ठ ३१ और ३२ ) उक्त गुणों को अप्रधान कहने में हमारा यह अभिप्राय कदापि नहीं है कि काव्य के लिये उनकी आवश्यकता ही नहीं है ।.........सत्काव्य से यदि उनका संयोग हो जाय, तो उसकी रमणीयता को वे कहीं बढ़ा देते हैं।.........सर्वसाधारण के मनोरंजनार्थ रत्न को जैसे कुंदन में खचित करना पड़ता है, वैसे ही काव्य को उक्त गुणों से अवश्य अलंकृत करना चाहिए। (निबंधमालादर्श, पृष्ठ ३५) +सब देसन मैं निज प्रभाव नित प्रकृति बगारत ; विश्व-विजेतनि को शब्दहिं सों जय करि डारत । शब्द-माधुरी-शक्ति प्रबल मन मानत सब नर , ____ जैसो कै भवभूति गयो, तैसो पदमाकर । श्रीजयदेव अजौं स्वच्छंद ललित सो भावे, ___ो क्रम बिनहूँ पाठक को मति-पाठ पढाबैं । ( समालोचनादर्श, पृष्ठ १६ और १७)