१७२ देव और विहारी रक्खा था। देखिए, उस मन-मंदिर को देवजी कैसे अनोखे ढंगा से ढहाते हैं ? बना-बनाया खेल कैसे बिगाड़ते हैं ? कवि लोग सृजन और प्रलय यों ही किया करते हैं । यह सृष्टि ही निराली है। यह विधि की बनावट' (?) नहीं है बरन् कवि की सृजना अथवा ध्वंसकारिणी कृति है । कविवर देवजी कहते हैं- "देव" घनस्याम रस बरस्यो अखंड धार, पूरन अपार प्रेम-पूर न सहि पस्यो । विषै-बंधु बूड़े, मदमोह-सुत दबे देखि, अहकार-मीत मरि, मुरझि महि परयो । आसा-त्रिसना-सी बहू-बेटी लै निकसि भाजी, माया-मेहरी पै देहरी पै न रहि परयो । गयो नहिं हेरो, लयो बन मैं बसेरो, नेह- नदी के किनारे मन-मंदिर ढहि परयो । क्या आपने घोर वर्षा के अवसर पर नदी के किनारे के मकान गिरते देखे हैं ? यदि देखे हैं, तो एक बार देवजी की अपूर्व सूक्ष्म दर्शिता पर ध्यान दीजिए। स्नेह-नदी के किनारे मन-मंदिर स्थितः है। धनश्याम अखंड रस बरसा रहे हैं । फिर मंदिर कैसे स्थिर रह सकता है तथा उसमें रहनेवाले विषय, मद, मोह, आशा, तृष्णा आदि भी कैसे ठहर सकते हैं ? जब स्नेह का तूफ़ान आता है, तो सब कुछ स्नेहमय दिखलाई पड़ता है- औचक अगाध सिंधु स्याही को उमॅगि आयो; तामैं तीनौ लोक बूड़ि गए एक संग मै; कारे-कारे कागद लिखे ज्यों कारे आखर, सुन्यारे करि बाँचै, कौन नाचै चित भंग मैं ? आँखिन मैं तिमिर अमावस की रौनि अरु जंबूरस- बूंद जमुना- जल- तरंग मैं;
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