देव और विहारी गौन गुमान उतै इत प्रीति सु चादर-सी अँखियान पै खेंची। x x x x x x xxx xxx या मन मेरे अनेरे दलाल है, हो नँदलाल के हाथ लै बेंची । दलाली करवा दी, फिर भी देवजी को मन-माणिक्य ही अधिक जंचता था। जौहरी को जवाहरात से काम रहता है । मदन-महीप मन-माणिक्य को किस प्रकार ऐंठते हैं, यह बात देवजी से सुनिए- बाजी खिलायकै बालपनो अपनोपन लै सपनो-सो भयो है। जोबन-ऐंठ मैं बैठत ही मन-मानिक गाँठि ते ऐठि लयो है। इस प्रकार मन-माणिक्य का ऐंठा जाना देवजी को इष्ट न था। इस बहुमूल्य रत्न को वे यों, प्रतारणा के साथ, जाने देना पसंद नहीं करते थे। सावधान करने के लिये वे कहते हैं- गाँठि हू ते गिरि जात, गए यह पैयै न फेरि, जु पै जग जोवै ; ठौर-ही-ठौर रहैं ठग ठाढ़ेई पीर जिन्हें न हँसै किन रोवै। दीजिए ताहि, जो आपन सो करै "देव" कलंकनि पंकनि धोवै; बुद्धि-बधू को बनायकै सौंपु तू मानिक-सो मन धोखे न खोवै। यदि बेचना ही है, तो समझ-बूझकर बेचना चाहिए, क्योंकि- मानिक-सो मन खोलिए काहि ? कुगाहक नाहक के बहुतेरे। देवजी को मन का साथ छोड़ना सर्वथा अप्रिय था। उससे उनकी गहरी मित्रता थी। उसके सामने वे अपने और मित्रों को कुछ भी नहीं समझते थे। कहते हैं- मोहिं मिल्यो जब तैं मन-मीत, तजी तब तैं सबते मैं मिताई । बहुमूल्य मणि की जितनी प्रशंसा की जाय, थोड़ी है। मन की
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