पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१५९

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प्रेम छुटन न पैयतु बास छिनकु, नेह-नगर यह चाल ; मारथो फिरि-फिरि मारिए, खूनी फिरै खुस्याल । मन, न धरत मेरो कह्यो तू आपने सयान ; अहे परनि पर-प्रेम की परहथ पारि न प्रान । कब की ध्यान लगी लखौं, यह घर लगिहै काहि ? डरियतु ,गी-कीट-लौं मत वहई है जाहि । चाह-भरी, अति रिम-भरी, बिरह-भरी सब गात : कौरि सँदेसे दुहुन के चले पौरि लौं जात । झमकि चढ़त, उतरत अटा, नेक न थाकत देह; भई रहत नट को बटा अटकी नागरि नेह । मकतूल का बार-बार कल होना और खूनी का खुशहाल घूमना कितनी हैरतअंगेज बात है, मगर नेह-नगर में यही चाल दिख- खाई पड़ती है। इसी प्रकार ध्यान-तन्मयता देखते हुए मुंगी- कीट-न्याय का स्मरण करके तादृश हो जाने का भय कितना स्वाभाविक है। चौथे दोहे का कहना ही क्या है ! पाँचवें का भाव भी उत्तम है। पर देवजी ने इससे भी उत्तम भाव अपनाया है। सुनिए- दौरघ बंसु लिए कर मैं; उर मैं न कहूँ भरमै भटकी-सी ; धीर उपायन पाउँ धरै, बरतै न परै, लटकै लटका-सी । साधति देह सनंह, निराटक है मति कोऊ कहूँ अटकी-सी ; ऊँचे अकास चदै, उतरे ; सु करै दिन-रैन कला नट की-सी। विहारीलाल की अपेक्षा देवजी ने प्रेम का वर्णन अधिक और क्रम-बद्ध किया है। उनका वर्णन शुद्ध प्रेम के प्रस्फुटन में विशेष हुआ है। विहारीलाल का वर्णन न तो क्रम-बद्ध ही है, न उसमें विषय-जन्य और शुद्ध प्रेम में बिलगाव उपस्थित करने की चेष्टा की गई है। देवजी ने परकीया का वर्णन किया है और अच्छा किया