पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१५६

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१४४ देव और विहारी ध्रव-प्रहलाद-उर हुव अहलाद जासो, प्रभुता त्रिलोक हूँ की तिल-सम तूली है। बदम-से बेद-मतवारे मतवारे परे, मोहै मुनि-देव "देव' शूली-उर शूली है; प्यालो भरि दे री मेरी सुरति-कलारी, तेरी प्रेम-मदिरा सों मोहि मेरी सुधि भूली है। प्रेमी को प्रेम-मद-पान कराकर देवजी उसे प्रेम की सर्वोत्कृष्टता का बोध कराते हैं। वैदिकों के वाद-विवाद, लोक-रीति माननेवालों का लौकिक रीतियों पर न्योछावर होना, तापसों की पंचाग्नि साधना, योगियों के योग-जीवन एवं तत्त्वज्ञों के ज्योति-ज्ञान के प्रति उपेक्षा दर्शाते हुए एवं उपहास की परवा न करके कोई प्रेम-विह्वला नंद- कुमार को कैसी मर्म स्पर्शिनी उनि सुनाती है- जिन जान्यो बेद, तेतौ बादिकै बिदित होहु ; जिन जान्यौ लोक, तेऊ लीक पै लरि मरो जिन जान्यो तप, तीनौ तापनि तँ तपि-तपि, पंचागिनि साधि ते समाधिन धरि मरो। जिन जान्यो जोग, तेऊ जोगी जुग जुग जियो; जिन जानी जोति, तेऊ जोति लै जरि मरो; हौं तौ "देव” नंद के कुँवर, तेरी चेरी भई, मेरो उपहास क्यों न कोटिन करि मरो ? देवजी की राय में उत्तम शृंगार-रस की अाधार स्वकीया नायिका है और उसी का प्रेम शख-सानुराग प्रेम है। स्वकीया में भी वे मुग्धा में ही आदर्श-प्रेम पाते हैं, क्योंकि मध्या का प्रेम कलह और प्रौढ़ा का गर्व से कलुषित हो जाता है। देवजी कहते हैं- दंपति सुख-सपति सजत, तजत विषय विष-भूख ; "देव सुकवि" जीवत सदा पीवत प्रेम-पियूख ।