पृष्ठ:देव और बिहारी.djvu/१५४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

१६३ देव और विहारी काची प्रीति कुचालि की बिना नेह, रस रीति ; मार रंग मारू, मही बारू की-सी भीति । प्रगट भए परकीय अरु सामान्या को संग; धरम-हानि, धन हानि, सुख थोरो, दुःख इकंग। वेश्या में प्रेमाभाव-वश उनकी प्रीति में शृंगाराभास का होना स्वाभाविक ही है, परंतु परकीया की प्रीति में भंगाराभास की बात नहीं है । इससे उनमें प्रेम का वर्णन किया गया है। देवजी पुरुषों को पर-नारी-विहार से विरत कराने के लिये पर-नारी- संयोग की तुलना कठिन योग से करते हैं। कैसी-कैसी यातनाओं का सामना करना पड़ेगा, इसका निर्देश करते हैं। मानसिक एवं शारीरिक सभी प्रकार के कष्टों का उल्लेख किया जाता प्रेम-चरचा है, अरचा है कुल-नेमन, रचा है ____चित और अरचा है चित चारी को ; छोड्यो परलोक, नरलोक, बरलोक कहा ? हरष न सोक, ना अलोक नर-नारी को। घाम, सीत, मेह न बिचारै मुख देह हूँ को, प्रीति ना सनेह, डरु बन ना अँध्यारी को; भूलेहू न भोग, बड़ी बिपति बियोग-बिथा; जोगहू ते कठिन संयोग परनारी को। जिस प्रकार पुरुषों को पर-नारी-संयोग का काठिन्य दिखलाया गया है, उसी प्रकार परकीया के मुख से निम्नलिखित छंद कहला- कर मानो देवजी ने समस्त नारी-समाज को पातिव्रत-माहात्म्य का उच आदर्श दिखलाया है- बारिध बिरह बड़ी बारिधि की बड़वागि, बूढे बड़े-बड़े जहाँ पारे प्रेम पुल ते।