प्रतिभा-परीक्षा बाजी' के कौशल का हमने प्रारंभ में उल्लेख किया था, वह पूर्ण रूप से यहाँ मौजूद है ; सुतरां दोहे की सुंदरता सर्वतोभावेन सराहनीय है। माखन-सो मन, दूध-सो जोबन, है दधि ते अधिक उर ईठी, जा छबि आगे छपाकर छाछ, समेत-सुधा वसुधा सब सीठी, नैनन नेह चुवौ “कबि देव" बुझावति बैन बियोग-अँगीठी, ऐसी रसीली अहीरी अहै ! कहौ, क्यों न लगै मनमोहनै मीठी १ देव अर्थ-जिस रसोली ग्वालिन का मन मक्खन के समान और यौवन दुग्य के समान है, जो हृदय को दधि से भी अधिक इष्ट है, जिसकी शोभा के सामने शशधर छाछ-सा लगता है, जिसके सम्मुख सुधा-सहित संमार की सभी मीठी वस्तुएँ सीठी जंचती हैं, जिसके नेत्रों से स्नेह टपका पड़ता है तथा जिसके वचन सुनकर वियो- गाग्नि बुझ जाती है, वह भला मनमोहन को क्यों न मधुर लगेगी? तात्पर्य यह कि संयोगी रसराज, ब्रजराज को कोमला, तरला, हृदय- हारिणी, समुज्ज्वला, मधुरा, स्नेहमयी, मंज-भाषिणी और रसीली गोपिका निश्चय ही अच्छी लगेगी। उपर्युक्त उक्ति एक सखी की दूसरी सखी से है । वे दोनों आपस में नायिका का सौंदर्य बखान रही हैं । दुग्ध एवं उससे समुद्भूत पदार्थों के गुण विशेष का सादृश्य नायिका के तन और मन में प्रारोपित किया गया है । यदि मन नवनीत के समान कोमल है, तो यौवन दुग्ध के समान तरल और निर्मल है तथा नायिका स्वयं दधि के समान प्रचि न उत्पन्न करानेवाली है। उसकी शोभा के सामने शशधर मक्खन निकाले हुए मटे के समान है । उसके नेत्रों से स्नेह (धृत) टपका पड़ता है । इस प्रकार नवनीत की कोमलता, दुग्ध
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