१५४ देव और विहारी इस प्रकार रस का पूर्ण परिपाक दर्शनीय है । वृत्ति भारती है एवं गुणों में प्रसाद, अर्थ-व्यक्त और माधुर्य का अपूर्व सम्मिलन है। संपूर्ण छंद को पढ़ने से स्वभावोक्ति-अलंकार की आभा भली लगती है। अंग की सहज शोभा के सामने आभूषणों का निरादर हुआ है, इससे प्रतीप-अलंकार का रूप सामने आता है। परंतु अंगों के उपमान स्पष्ट न होने से वह व्यंग्यमात्र है। इसी को अर्थ-ध्वनि कहते हैं । तन, भूषन, अंजन, दृगन, पगन, सोभा, साज श्रादि में वृत्यानुप्रास और छेकानुप्रास भी हैं। संपूर्ण वाच्या से रूपोत्कर्षता भासित होती है, इससे वाच्यार्थ ध्वनि हुई। ___ऊपर दर्शित किया जा चुका है कि यह उक्ति नायक की नायिका के प्रति अथवा नायिका की सखी के प्रति हो सकती है। इसी प्रकार यह उक्ति नायिका के प्रति सखी की भी हो सकती है । सखी नायिका की प्रशंसा में कहती है-"तू इतनी सुंदरी है कि तुझे भूषणों की आवश्यकता ही नहीं है, पर कहने के लिये मैं भूषण, अंजन और महावर का प्रयोग करती हूँ, क्योंकि ये सब सहज सौं- दर्य में छिप जाने के योग्य हैं-सौंदर्य बढ़ाने का काम उनसे क्या बन पड़ेगा ?" इस प्रकार सौंदर्य-शोभा का बखान करके मानो सखी नायिका को नायक के पास जाने के लिये मजबूर करती है। इस प्रकार का भाव झलकने पर नायिका का रूप 'मुग्धाभिसारिका' का हो जाता है एवं शृंगार करके नायिका को नायक के पास भेजने का सखी-कार्य मंडन-कर्म समझ पड़ता है। परेष्ट-साधन-स्वरूप यह पर्यायोक्ति का दूसरा भेद है। यदि गहने, अंजन और महावर अपने- अपने स्थान पर छिप गए हों, तो मीलित अलंकार का रूप आ जाता है। ३६ अक्षरों का दोहा, जिसमें २४ लघु और १२ गुरु मात्राएँ हों, 'पयोधर' कहलाता है। उपर्युक्त दोहे में वही लक्षण होने से दोहा पयोधर' का रूप है। विहारीलाल की जिस 'इशारे-
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