देव और विहारी अलंकारों का प्रयोक्ता सांगोपांग वर्णन का अवश्य भक्त होगा । पूरा चित्र खींच देना उसे स्वभावतः रुचेगा-विशेष करके जब इस काम के लिये उसे लंबे छंद की सहायता भी मिलती है । विहारी- लाल के पास सांगोपांग वर्णन के लिये स्थान नहीं है, पर मुख्य बातें वे छोड़ना भी नहीं चाहते । ऐसी दशा में उन्हे इशारों का सहारा लेना पड़ता है । भिन्न बुद्धि-विकास के पाठकों को इन इशारों को भिन्न-रीति से समझने का अवसर मिलता है । इसी कारण दोहों के अनेकानेक भाव टीकाकार कई प्रकार से समझाते हैं। अतिशयोक्ति का प्रयोग भी एक प्रकार अत्यंत प्रयल इशारों द्वारा बात विशेष का समझाना है। विहारीलाल ने इसका प्रयोग खूब किया है । गूढ काव्य-चातुरी के लिये अपेक्षित इशारों का प्रयोग करने में देवजी विहारी के समान उदार है, परंतु स्थल के अभाव से विवश होकर इशारों से कार्य-साधन करने की प्रणाली विहारी की निराली है । दोहा-जैसे छोटे छंद के प्रयोका, विहारीलाल का काम इशारेबाज़ी के विना चल नहीं सकता था। कविता में सब बात खोलकर कहने की अपेक्षा इतना कह जाना, जिससे छोड़ी हुई बात पाठक तत्काल समझ लें, कवि-कौशल है। देवजी ने इस कौशल में परम प्रवीणता दिखलाई है । विहारीलाल को, छोटे छंद के पाबंद होने के कारण, इस कौशल से कुछ विशेष प्रेम था। कहना नहीं होगा कि उन्होंने अपने काव्य में इस कौशल से अत्यधिक लाभ उठाने की चेष्टा की है । देव और बिहारी की इस कथन-शैली पर भी पाठकों को समुचित रीति से दृष्टि रखनी चाहिए। कुछ लोग अतिशयोक्ति को 'कविता की जान और रस की खान' सानते हैं । यह उनकी स्वतंत्र सम्मति है । यदि इस विषय में संस्कृत-साहित्य के प्राचार्यों की सम्मतियाँ एकत्रित की जाय, तो
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