१४८ देव और विहारी में-अनूठे भाव भरने का जो अपूर्व कवि-कौशल है, उसकी महत्ता को हम किसी प्रकार कम समझते हैं । हमारी प्रार्थना केवल इतनी ही है कि सजावट-सौकर्य एवं भाव-समावेश-काठिन्य दोनों का साथ- ही-साथ समुचित विचार होना चाहिए। देवजी विशेषतया घनाक्षरी और सवैया-छंदों का प्रयोग करते हैं। ये बड़े छंद है। स्थान पर्याप्त है। भाव-समावेश में सुकरता है, 'पर सजावट के लिये विशेष परिश्रम वांछित है। चित्रकार को अपनी प्यालियों में अधिक रंग घोलना होगा-कूचियों का प्रयोग अनेक बार करना होगा, तब कहीं चित्र में जान पावेगी-तब कहीं वह देखने- योग्य बन सकेगा। देवजी के छंदों पर विचार करते समय यह बात ध्यान में रखनी होगी कि भाव-समावेश करते हुए व्यर्थ के पदों से उक्ति का सौदर्य तो नष्ट नहीं कर दिया गया है-व्यर्थ के ढीलेढाले वस्त्राभूषण पहनाकर कविता-कामिनी की कांति तो कम नहीं कर दी गई है । भाव-समानता होने पर देवजी को जो कठिनाई पड़ती है, विहारीलाल के लिये वही सरलता है। तथैव इनके लिये जो सरलता है, उनके लिये वही कटिनाई है। चित्र एक ही है। श्राकार में भेद है। परीक्षा करते समय श्राकार भुला देना होगा। देखनी होगी केवल चित्रण की सफाई । प्रस्फुटन-लाघव जिसका दर्शनीय है, वही श्रेष्ठ है। देव-विहारी के भावों में साम्य उपस्थित होने पर छंदों के वैषम्य पर, उपर्युक्त ढंग से, दृष्टि न रखने से दोनों में से किसी के साथ अन्याय हो जाना संभव है । मणि की प्रभा का यथावत् प्रकाश फैल सके, मुख्य बात यही है । माणि सोने की अंगूठी में जटित है या चाँदी की अंगूठी में, यह बात गौण है । सोने की अंगूठी होना ही पर्याप्त नहीं है । यदि अंगूठी की रचना बेढंगी है, तो उसमें जटित मणि की शोभा का विकास न हो सकेगा-वह निष्प्रभ
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