मर्मज्ञों के मत १४१ देवजी के परवर्ती कवियों ने भी उनके भाव अपनाए हैं। घन- आनंद, बोधा, पद्माकर, दास, हरिश्चंद्र आदि ब्रजभाषा के साधा- रण कवि नहीं हैं, पर इन सबने देव के भाव अपनाकर उनकी कविता के प्रति अपनी प्रगाढ भक्ति दिखलाई है। पुस्तक-कलेवर-वृद्धि, के भय से संकेतमात्र द्वारा यह भावापहरण दिखलाया जाता है- ( क ) बेगिही बूड़ि गई पेखियाँ, आँखियाँ नयु की मखियाँ भई मेरी । देव माधुरी-निधान, प्रानयारी, जान प्यारी तेरो रूप-रस चाखे बॉखै मधु-मार्खा है गई। ___वर मानद (ख) प्रेम सो कहत कोऊ ठाकुर, न ऐठो सुनि, बैठो गडि नहिरे, तौ पैठो प्रेम-घर भै ! देव लोक की भीत डेरात जो ' मीत, तो प्रीति के पड़े परै जनि कोऊ । बोधा (ग) पूँठी झलमल की झलक ही मैं भूल्यो। जल-मल की पखाल खल, खाली खाल पाली तें । देव रीती रामनाम ते रही जो, बिन काम तो या खारिज, खराब-हाल खात की खलीती है । पद्माकर (घ) थरकि, थरकि, थिरु, थाने पर थाने तोरि बाने बदलत नर मोती लटकन को। देव
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