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१३८ देव और विहारी पड़ता है । ऊपर के दिखाव की अपेक्षा विहारीलाल सच्ची भक्ति के जपमाला, छापा, तिलक सरै न एको काम ; मन कॉचे, नाचे वृथा; सॉचे रांचे राम । जैसे देवजी ने अनुभव-शून्य जीवन की प्रौटते समय उफान खाते हुए दूध से समुचित समता निदर्शित की है, वैसे ही अनुभव-हीन यौवन पर विहारीलाल की निगाह भी अच्छी पड़ी है- यक मोजे, चहले परे, बूढ़े, बहे हजार; किते न औगुन जग करत नै बै चढती बार ? सचमुच देव और विहारी-सदृश कवियों की कविता पढकर एवं वर्तमान भाषा-कविता की दुर्दशा देखकर बरबस विहारीलाल का यह दोहा याद आ जाता है- जिन दिन देखे वै कुसुम, गई सु बीति बहार ; अब अलि, रही गुलाब मैं अपत कटीली डार । विहारीलाल के बेहद अनुभव का ऊपर अत्यंत स्थूल दिग्दर्शन कराया गया है । वे परम प्रतिभावान् कवि थे। (विषय-श्रृंगार और अतिशयोक्ति-वर्णन में वे प्रायः अद्वितीय थे।