बहुदर्शिता इसी प्रकार भक्ति-तत्त्व-दर्शी विहारी प्रसाद-माला से तन को 'कदंब-माल'वत् कर देते और 'अपूरब भगति' दिखला देते हैं। नटों के खेल, प्रत्येक प्रकार की मृगया आदि नायिका के अवयवों में दृष्टिगत होती है । तुलसीदास का विराट् शरीर यहाँ नायिका के अंगों में परिलक्षित है। विहारीलाल वैद्यक-तत्त्वों के भी ज्ञाता समझ पड़ते हैं। उनके काव्य में वैद्य सराहना करके औषधि के लिये पारा देता दिखलाई पड़ता है । विषम-ज्वर में विहारीलाल 'सुदर्शन' की ताकीद भी खूब ही करते हैं । इतिहासज्ञ कवि पांचाली के चीर और दुर्योधन की 'जलथंभ-विधि' का प्रयोग भी अपने उसी अनोखे ढंग से करते हैं । सूम की कंजूसी, ग्राम्य लोगों द्वारा गुणियों का अनादर उन्होंने खूब कहा है। उनकी अन्योक्तियाँ चमत्कार-पूर्ण हैं । सूक्ष्म ललित कलाओ से संबंध रखनेगला यह दोहा बड़ा ही मनोहर है- तंत्री-नाद, कवित्त-रस, सरस राग-रति-रंग, अनबूड़े, बूड़े; तरे, जे बूड़े सब अग । वास्तव में वीणा-झंकार, कविता-सत्कार एवं संगीत-उद्गार आदि में तन्मयता अपेक्षित है । इनमें जो डूब गया, वही मानो घर गया और जो न डूब सका, वह डूब गया अर्थात् वह इस विषय में अज्ञ ही रह गया। बिहारी के इस आदर्श का निर्वाह देव ने पूर्ण रीति से किया है। 'तस्योना' का श्रुति-सेवन एवं 'मुक्तन' के साथ 'बेसरि' का नाक- वास तथैव किसी की चाल से पद-पद पर प्रयाग का बनना हमें लाचार करता है कि हम विहारीलाल के धार्मिक भावों की अधिक छानबीन न करें। (विहारीलाल वेदांत के भी ज्ञाता थे। वे जग को "काचे काँच" में समान पाते हैं, जिसमें केवल उसी का रूप प्रतिबिंबित दिनलाइ
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