बहुदर्शिता १३३ इन सभी ग्रंथों में वे अपने आदर्श से कहीं भी स्खलित नहीं हुए हैं। मुसलमानों के लिये लिखे जाने के कारण उन्होंने सुख-सागर- तरंग या भाव-विलास की भाषा में विदेशी भाषाओं के शब्दों का अनुचित सम्मिश्रण कहीं भी नहीं होने दिया है। पर वे विदेशी भाषाश्रा के शब्द-समूह से परिचित समझ पड़ते हैं। क्योंकि जहाँ कहीं उन्होंने अन्य भाषाओं के शब्दों का प्रयोग किया है, वहाँ पर उनका प्रयोग महाविरे और अर्थ से ठीक ही उतरा है। (८) देवजी केवल कवि ही नहीं थे-उन्होंने काव्य-शास्त्र में वर्णित रीति का वर्णन भी बड़े मार्के का किया है। वे कविता के प्रधान प्राचार्यों में से हैं। उन्होंने प्राचीन नायिका-भेद के अति- रिक अपना नवीन नायिका-भेद-क्रम स्थिर किया और इसमें उन्हें सफलता भी हुई। उन्होंने गुण के अनुसार सात्त्विक, राजस और तामस नायिकाएँ स्वीकार की तथा प्रकृति के अनुसार कफ, वात एवं पित्त का क्रम रक्खा। सत्त्व के हिसाब से नायिकाएँ सुर, किन्नर, यक्ष, नर, पिशाच, नाग, खर, कपि और काग-नामक श्रेणियों में विभक्त हुई एवं देश के अनुसार उनकी संख्या अनंत मानी गई। कामरूप, मरु, गुजरात, सौवीर, उत्कल आदि देशों की रमणियों के उदाहरण कवि ने अपने ग्रंथ में दिए हैं। शेष नायिका-भेद और काव्य-प्रणाली प्राचीन प्रथा के अनुसार वार्णित है, यद्यपि कहीं-कहीं पर देवजी नूतनता प्रकट करते गए हैं। उन्होंने पदार्थ-निर्णय में तात्पर्य-नामक एक शक्ति विशेष का उल्लेख किया है। उनके ग्रंथों में काव्य-शास्त्र की प्रायः सभी जाननेवाली बातों का वर्णन आ गया है । पाठक रीति-ग्रंथ देखकर ही संतोष प्राप्त कर सकते हैं । स्थल-संकोच से यहाँ पर उदाहरण नहीं दिए जा सकते। चित्र-कान्य एवं पिंगल-शास्त्र का निरूपण भी देवजी ने अनूठे
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