१२० देव और विहारी याभिमान का त्याग करना पड़ा था। विहारीलाल भाषा से भी बढ़कर भाव के भावुक हैं । कंकरीली गली में चलने से प्रियतमा को पीड़ा होती है। वह 'नाक मोरि सीबी' करती है। यह प्रियतम के प्रभूत आनंद का कारण है। रसिक-शिरोमणि विहारीलाल उसी 'सीबी' को सुनने और नाक की मुड़न को देखने के लिये फिर-फिर भूल करके उसी रास्ते से निकलते हैं। फारस का कवि एक अपरिचित बालिका के कथन- मात्र को सुनकर मुग्ध हुआ था। पर विहारीलाल परिचित प्रियतम को संपूर्ण युवती के अंग-संकोच एवं सीबी-कथन से मुग्ध कराते हैं- नाक मोरि सीबी करै जितै छबीली बैल, फिरि-फिरि भूलि वही गहै प्यौ ककरीली गैल । (५) 'रहट-घड़ी' के द्वारा सिंचाई का काम बड़ी ही सरलता से संपादित होता है । अनेक घड़े मालाकर पुष्ट रज्जु से परिवेष्टित रहते हैं एवं कुएँ में काष्ट के सहारे इस भाँति लटका दिए जाते हैं कि एक जल-तल पर पहुँच जाता है। इसी को घुमाकर जब तक बाहर निकालते है, तब तक दूसरा-तीसरा डूबा करता है। इसी भाँति एक निकलता है, दूसरे का पानी नाया जाता है, तीसरा टूबता रहता है, चौथा डूबने के पूर्व पानी पर तैरता रहता है। नेत्र-रूपी रहट भी छवि-रूप जल में इसी दशा को प्राप्त हुआ करते हैं । इसी भाव को कवि ने खूब कहा है- हरि-छांब-जल जब ते परे, तब ते छिनु बिछुरै न । भरत, ढरत, वूड़त, तरत रहट-घरी लौं नैन । (६) यमकालंकार का प्रयोग भी कहीं-कहीं पर विहारीलाल ने बड़ी ही मार्मिकता से किया है । 'उरबसी' के कई अर्थ हैं- (१) अप्सरा-विशेष, (२) मनोमोहिनी, हृदय-विहारिणी तथा (३) श्राभूषण विशेष । इन तीनों ही अर्थों में नीचे-लिखे दोहे में उर्वशी का संतोषदायक समिनेश हुआ है-
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