देव और विहारी (३) प्रौढ़ा धीरा नायिका का पति सामने आ रहा है। पत्नी को उसके सापराधी प्रमाणित करने का कोई उपाय नहीं है। फिर भी उसे पति के अपराधी होने का संदेह है। इस संदिग्ध अपराध को प्रहसन द्वारा जानने का नायिका बड़ा ही कौतूहल-पूर्ण प्रयत्न करती है। जिस अन्य स्त्री के साथ अपने नायक के संभोगशाली रहने का उसे संदेह है, उसका चित्र-रूप वर्णन करती हुई वह नायक से यकायक पूंछ उठती है-“अरे ! वह अपने पीछे तुमने किसको छिपा रक्खा है, जो हँस रही है।" इस कथन से नायक जिस प्रकार चैंकता, उसी से सारा भेद खुल जाने की संभा- वना थी । वास्तव में न कोई पीछे छिपा है, न कोई हँस रहा है। परंतु मनुष्य-प्रक्रति पारखी देव का कथन-कौशल भाविक अलंकार के साथ जगमगा रहा है-- ---- रावरे पॉयन-श्रोट लसै पग- गूजरी-वार महावर ढारे, सारी असावरी की झलकै, छलकै छवि घाँघरे घूम बुमारे । श्रावो जू आओ, दुरात्रो न मोहूँ सों, "देवजू" चंद दुरै न अध्यारे; मुसकान निकलकर खाय गई चित सुधा- लपेटा कत्ता-सा ; भर नजर न देख सुधाकर को, छुट परै छपाकर छत्ता-सा । सीतल यह पद्य स्पष्ट ही ऊपर उद्धत देवजी के छद का छायानुवाद है । देखिए, जसाषा में वही साव कैसा मनोहर मालूम पड़ता है।
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