भूमिका उनके चेहरे की गठन हमें उनकी प्रकृति का पूरा पता दे देती है। अस्तु । चित्रकार अपने इस कार्य को चित्र द्वारा संपादित करता है। कवि का काम भी वही है। उसके पास रंग की प्याली और कुची नहीं है, पर उसे भी कैसर का स्वरूप खींचना है। इस कार्य को पूरा करने के लिये उसके पास शब्द हैं । कवि को ये शब्द ही सर्वस्व हैं। इन्हीं को वह ऐसे अच्छे ढंग से सजाता है कि शब्द- सजावट देखनेवाले के मानस-पट पर भी वही चित्र खिंच जाता है, जिसे चित्रकार काग़ज़ पर, भौतिक आँखों के लिये, खींचता है। हमारे सामने काग़ज़ नहीं है । हमारी आँखें बंद हैं । हम केवल कवि के शब्द सुन रहे हैं। फिर भी हमें ऐसा जान पड़ता है कि कैसर हमारे सामने ही खड़े हैं । उनका रंग-रूप, क्रोध से लाल चेहरा, डरावनी दृष्टि, ग़ज़ब गिरानेवाली आवाज़ सब कुछ तो सामने ही मौजूद है । विक्रम संवत् की इस २०वीं शताब्दी में, जब कि जादू-टोने का अंत हो चुका है, यह खिलवाड़ किसकी बदौलत हो रहा है ? उत्तर है कि यह सब कवि की शब्द-सजावट का ही खेल है। उसने पहले अपने मानस-पट पर कैसर का चित्र खींचा। फिर उसी को शब्द-रूपी रंग से रंगकर कर्ण-सुलभ कर दिया। कानों ने उसे श्रोता के मानस-पट तक पहुँचा दिया और वहाँ चित्र तैयार होकर काम देने लगा । कवि का कार्य इतना ही था। उसने अपना कार्य पूरा कर दिया। श्रव्य काव्य बन गया । इस श्रव्य काव्य को श्राप अक्षरों का स्वरूप देकर नेत्रों के भोग-योग्य भी बना सकते हैं। संगीतकार इस श्रव्य काव्य का टीकाकार है । यह टीकाकार आज कल पुस्तकों पर टीका लिखनेवालों के समान नहीं है। यह श्रब्य काव्य की टीका भी शब्दों ही में करेगा । इन शब्दों को वह विचारों की सुविधा के अनुसार ही सजावेगा । पर एक बात वह और करेगा। वह शब्द के प्राकृतिक गुण, स्वर का भी क्रम ठीक
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