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देव-सुधा
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घेरी चहूँ ओरन ते भौंरन की भीर, तामै येरी चितचोरनि चकोरनि की भीर है ॥११६ ।।

सोधो = शुद्ध । गहीर = गंभीर ।

कातिक१ की राति पूनो इदु परकास दूनो आस-पाम पावस - अमावस खगी रहै ;

ग्रीषम$ की उषमा मयूष मान कसे, मुग्व+ देखे सनमुख निसि सिसिर लगी रहै।

बरसैx जोन्हाई सधा बसुधा सहस धार कुमुदिनि सूखै ज्यों-ज्यों जामिनि जगी है;

दोऊ’÷ पर उज्जल बिराजै हंस हंगी देव स्याम रंग रंगी जगमगि उमगी रहै ।। १२० ।।

  • प्रयोजन यह है कि सौरभ के लोभ से भौरे तथा चंद्रमा

के भ्रम से चकोर नायिका को घेर रहे हैं ।

+शरद् ।

  • मुख-मंडल के इधर-उधर बालों के समूह से मेघाच्छादित वर्षा-

ऋतु का मतलब है। $ नायिका के मान करने से ग्रीष्म-ऋतु का अभिप्राय है। + नायिका के मुदित मुख-चंद से शिशिर का अभिप्राय है। x हेमंत-ऋतु ; इस ऋतु में कुमुदिनी ज्यों-ज्यों रात्रि बढ़ती है, त्यों-त्यों सूखती है।

÷वसंत-ऋतु ; इस ऋतु में दोनो पक्षों में श्रानंद रहता है। हंसी-रूपी नायिका के दोनो पर श्याम (हंस, नायक) के रंग में रंगेने पर भी उज्ज्वल है।