छाई छबि छहरि लुनाई की लहरि लह- नान्यो रस-मूल है रसाल सुर-रूख-सोछ;
पीवत ही जात दिन-राति तिन तोरि-तोरि, खिन-खिन सखिन को आँखिन पिऊख-सोई॥१०॥
नायिका की शोभा का कथन है।।
धार मैं धाइ धसी निरधार है, जाय फँसी उकसी न अबेरी, री अँगराइ गिरी गहिरी गहि फेरे फिरी न घिरी नहिं घेरी; देव कळू अपनो बसु ना रसु लालच लाल चितै भई चेरी, बेगि ही बूड़ि गईपखियाँ अँखियाँमधु की मखियाँ भई मेग।। १०२॥
नायक के रूप से मोहित हुई नायिका का वर्णन है । धार = यहाँ मधु-प्रवाह (प्रेम-प्रवाह ) से मतलब है। निरधार = निराधार =विना सहारे के।
समाभेद रूपक है।
बरुनी बघंबर औ' गूदरी पलक दोऊ. कोये लाल बसन भगोहै भेष रखियाँ ;
बूड़ी जल ही में दिन-यामिनिहूँ जागी भौं हैं, धूम सिर छायो बिरहागिनी चिलखियाँ ।
आँसू जो फटिक माल लाल डोरे सेली पैन्हि भई हैं अकेली तजी सेली संग मखियाँ;
- रस का मूल (मुख्यांश) कल्पवृक्ष-सा रसाल ( रस का घर,
रस-पूर्ण ) होकर लहराया ( हवा के झोंकों से डालें हिली)।
+नायक सखियों की आँखों से (श्रवण-दर्शन द्वारा) क्षण-क्षण तिन तोड़-तोड़कर (कुदृष्टि बराना) अमृत-सा पान करता जाता है।