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देव-सुधा
 


देवजू भोप किधौं अपमान अरे उपमान करौ कबिकोऊ॥८ ऐपन की ओप इंदु कुंदन की आभा चंपा केतकी को गाभा पीत जोतिन सों जटियत ; जगर-मगर होत सहज जवाहिर - से , अति हो उज्यारे जब ने मुक? उबटियत । वेसे हो सुभग सुकुमार अंग सुदरी के लालन तिहारे या सनेह खरे लटियत ; देव तेब२ गोरी के विलात गात वात लगे, ज्यों-ज्यों सीरे पानी पीरे पान से पलटि यत|६|| (१) थोड़ा । (२) ते अब । ऐपन = चावल और हल्दी बाँटकर जो अगलेपन बनाया जाता है । गाभा = अंतर्भाग। बिलात गात = शरीर लुह-सा होता जाता है, अर्थात नायिका कृश होती जाती है। लटियत = कृश होती है (लटा = दुर्बल) । उबटियत = उबटन लगाते हैं। ® इन उपमानों से वर्ण्य का प्रोप है कि अपमान (दीप्ति देने के स्थान पर ये उपमान उपमा न माने जाने से उसका निरादर करेंगे, क्योंकि हीनोपमा का मामला हो जायगा)। इससे कोई कवि ठीक उपमान का खोज करे, अथवा कोई कवि उपमा न दे । + पीले पान अगर ठंडे पानी में पलटे जाएँ, तो वे सड़ जाते हैं, और यदि गरम पानी में पलटे जाय, तो ठीक रहते हैं। छंद में विरह का वर्णन है। प्रयोजन यह दिखलाया गया है कि जैसे पीले पान ठंडे पानी से सुधरने के स्थान पर बिगड़ते हैं, वैसे ही विरह के कारण नायिका उद्दीपन के उपचारों से शोभा गप्त करने के स्थान पर कृश होती जाती है । उपमा बहुत अच्छी है।