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देव-सुधा

नायिका के मुख की प्रशंसा है। प्रतीपालंकार की मुख्यता है । उद्धत मनोज = काम से उन्मत्त । सुरोक ( सुर+श्रोक) = देव- लोक । दैयन = दैव के लिये । छोर ते = सीमा से (आकाश से)। छता= छाता।

खंजन मीन मृगीन की छीनी दृगंचल चंचलता निमिखा की , देव मयंक के अंक की पंक निसंक लै कजल-लीक लिखा की ; कान्ह बसी अँखियान बिषे बिसफूरति बीस बिसे बिसिखा की, दी गति मैन-महीप लिखाई समीप सिखा गहि दोप-सिग्वा की ।।६।।

आँखों ने निमिष, खंजन (खरैंचा), मछली तथा मृगियों के नेत्रों को चंचलता छीन ली । देव कवि कहता है, चंद्रमा के अंक ( गोदी) का कीचड़ ( कालिमा) बेख़ौफ़ लेकर आँखों में काजल की रेखा लिखते रहे । बेडर इसलिये कहा गया है कि पंक लगने से भी कुरूप होने का भय न हुश्रा । 'लिखा की' बार-बार कर्म करने का सूचक वाक्यांश है। उधर कजल भी निय ही लगाया जाता है । हे कान्ह ! आँखों के बिषे ( आँखों में ) बीसो बिस्वे बाण की तीव्रता बस गई है, तथा दीप-शिखा की शिखा निकट रखकर नेत्रों में राजा कामदेव को दीप्ति ( ज्योति ) लिखाई गई है।

कोयन ज्योति चहूँ चपला मुर-चाप सुभू मचि कजल कादौ, बुंद बड़े बरसैं अमुवा हिरदे न बसै निरदै पति जादौ ; देव समोर नहीं दुनिए धुनिए सुनिए कलकंठ निनादौड , तारे खुले न घिरी बरुनी घन नैन भए दोउ मावन-भादौ॥१७॥

  • कवि कहता है कि वर्षा का पवन संसार को नहीं धुनता

( कपाता या ध्वनि पूर्ण करता), वरन् सोहाल्ने कंठ का शब्द सुन पड़ता है।