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देव-सुधा

तट तक गई थी, किंतु महोदधि में उसने पैर नहीं रक्खा था, अर्थात् उसका मध्यम मान गुरु मान के निकट तक गया था, किंतु गुरु मान हुअा न था। उलटा पट लोग शीघ्रता से पलट देते हैं । इस छंद में नच्यो नट ज्यों और पलटी उलट्यो पट ज्यों में धर्म गुत है । उत्प्रेक्षाएँ बहुत श्रेष्ठ हैं, क्योंकि वे अर्थ को ख़ब समर्थ करती हैं।

राधिका-सी सुर-सिद्ध-सता नर-नाग-सुता कबि देव न भू पर , चंद कौँ मुख देखि निछावरि केहरि कोटि त्तटी कटि हू पर ; काम कमान हू को भृकुटीन पे, मीन मृगीन हू को ग दू पर , वागैरी कंचन-कंज-कली पिकबैनी के ओछे उरोजन ऊपर।।६१||

प्रतीप-अलंकार है । लटी = पतली।

देख न देवति हौं दुति दूसरी, देखे हैं जा दिन ते ब्रज-भूप मैं , पूरि रही री वही धुनि कानन,आनन पान न अोप अनूप मैं ; ए अँखियाँ सग्विया न हमारियै जाय मिली जलबुंद ज्यौं कूपमैं, कोटि उपाय न पाइए फेरि, समाय गई रंगराय के रूप में।।१२॥

प्रेम का वर्णन है । न हमारियै = केवल हमारी नहीं हैं, वरन् दूसरे की भी हैं, क्योंकि उसी से मिल गई।

दूध सुधा मधु सिंधु गभीर ते, हीर जुपै नग-भीर लै आवै* ,

  • दुग्ध, अमृत तथा मधु (मद्य या शहद) के समुद्रों को नग-भीर (पर्वत-पुज) द्वारा मंथन करके यदि कोई पुरुष उनके सार पदार्थ ले आवे । जब साधारण समुद्र के मंथन से चौदह रन निकले, तब उपयुक्त समुद्रों से अवश्य ही उत्तर पदार्थ निकलेंगे, यह अभिप्राय है। दूध से सफ़ेदी श्राई, अमृत से मीठापन और मधु (मद्य से सुनी। दाँतों के लिये सफ़ेदी है, और ओठों के लिये मिठाई तथा सुखी ।