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देव-सुधा


(१२)
कुछ राग-रागिनी

कोयल अलापी कुल नाचत कलापी, ताल बोलत बिसाल बोल चातक सुनायो है;

दामिनीन बीच उपबात गुन पीतपट , मोतिन का हार बग-पांति मन भाया है।

फूले मुख लोयन कमल कमलाकर , मुकुट रबि जोति ताप बरषि सिरायो है ;

मोहै धुनि सरगमै + बाषा पहर चौथे मेघ तनस्याम घनस्याम बनि आयो है ।। ५ ।।

मेघ-राग का घनस्याम (श्रीकृष्ण ) से रूपक बाँधा गया है। राग का ही वर्णन मुख्य है। उपबीत गुन = यज्ञोपवीत (जनेऊ) के डोरे । बग-पाँति = बगलों की पंक्ति । कमलाकर = सरोवर । सिरायो है = शांत किया है।

छंद में अलापना, नाचना, ताल देना आदि भगवान् से संबद्ध हैं, तथा कोकिल, मयूर, पपीहा श्रादि मेघ से। अंव के बौग्न बरै विराजती, मौरसिरा सो धरों सिरमौरी, इदु-से सुंदर गाल कपालन, बोल सुनाय करा पिक बोरी

  • फूले लोचन कमल है, मुख सरोवर, मुकुट सूर्य, ज्योति

ताप और बरसना सिराना (चित्तों को सियराना, ठंडा करना) हैं।

+ धनी र ग म = धैवत, निषाद, रिषभ, गांधार, मध्यम, ये सब स्वर मेघ राग में आते हैं। स से सहित का प्रयोजन लेना चाहिए । यह राग खाडव-जाति का है। धुनि सरगम से भगवान् तथा राग, दोनो श्रोता को मोहित करते हैं। मौलसिरी ही शिर पर मुकुट है।