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देव-सुधा


झमकारे झूमत गगन घने घूमत, पुकारे मुख चूमत परीहा मोरवानि के ।

नदी-नद सागर डगर मिलि गए देव, डगर न सूझत नगर पुग्वानि के

भारे जल • धरनि अँध्यारे धरनी - धरनि धागधर धावत धुमारे धुरवानि के ॥ ६८ ॥

सिंधुर = हाथी । बंधुर = सुदर तथा नम्र ( मेघों के झुकने से उनको एवं उँचाई न पकड़ने से विंध्य को नम्र कहा है)। गंधमादन = एक पर्वत का नाम । पुराणानु पार यह पर्वत इला- वृत और भद्राश्वखंड के बीच में है। गुरवानि = भारी । झमकारे = झमाझम बरसनेवाले (बादल)। जलधरनि = मेघ । धरनी-धर = भूधर, पर्वत । धाराधर = मेघ । धुमारे = धूमिल, धुएँ के रंग के ।

(१०)
हिंडोग

आली अलावति झू कनि सों झुक जाति कटी झननाति झकोरे, चंचल अंचल की चपला, चलबेनी बड़ी सो गड़ी चित चोरे; या विधि झनत देखि गया तब ते कबि देव सनेह के जोरे, झूलत है हिय हरि को हिय माहँ तिहारे हरा ये विंडोरे ॥६६ । कनि = झोंको से । झननाति = कटी में की किंकिनी शब्द करती है।

झकोरे = झोंके के वेग से । चंचल अंचल की चपला = बिजली के समान फड़कता हुश्रा अंचल । शब्दार्थ यह है कि यह चंचल अंचल है, या चपला। चलबेनी = हिलती हुई वेणी । भूलति ना वह झूलनि बाल की, फूलनि-माल की लाल पटी को, देव कहै लचकै कटि चंचल, चोरी हगंचल चाल नटी की;