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देव-सुधा

दुक्की लगाकर बैठता है, और मधुर माधवी (मद्य ) तथा मधु ( शहद ) के लालच से लड़ा पड़ता है।

दुहु पर = दोनो पखनों से। जैसे दोनो पंखों से तुम कमल का स्पर्श करते हो, वैसे ही यहाँ महुवे के मुख पर तुम्हारी परछाई पड़ते ही उसके फूल झड़े पड़ते हैं, अर्थात् जो भ्रमर कमल का लोभी है, वह यदि महुवे के पास जाय, तो न उसकी शोभा है, न महुवे की । सखी भ्रमर के ब्याज से नायक को केवल पद्मिनी-नायिका से अनुकूल होने की शिक्षा दे रही है।

प्रीषम द्वै पहरी मिस जोन्ह महाबिष ज्वालन सों परिबेठी , देखत दूष पिये हू पियूष अहूष महूष मिलो महुरेठी ; देव दुराएहु जोति सो होति अँगेठी से अंगनि आगि अँगेठी , कातिक-राति जगी जम जोय जुठेल जठेरी सुजेठ की जेठी॥४८॥ द्वै पहरी = दुपहरी = दोपहर । वियोग के कारण से जोन्हाई महाविष की ज्वालों से परिवेष्टित ( ढकी हुई ) समझ पड़ती है। महूष या महोष भारद्वाज-पक्षी का नाम है । उसको बोली की ध्वनि अहूष की-सी होती है। अतएव अहूष एक ध्वन्यात्मक शब्द है, जो भारद्वाज-पक्षी की कर्कश बोली प्रकट करता है। यह बोली महुरेठी (माहुर अर्थात् विष-पूर्ण) कही गई है । पद का प्रयोजन यह है कि नायिका को विरह-वश चाँदनी महोष की विष-पूर्ण ध्वनि से मिली हुई उसका अमृत-पान करने पर भी देखने में दुःखद है। वह चाँदनी दीप्ति छिपाने पर भी विरह-वश अँगीठी-से तप्त अंगों में दूसरी अंगेठी की अग्नि-सी होती है। विरह-वश नायिका को कार्तिक-चंद्र-ज्योत्स्ना-पूर्ण रात ऐसी बुरी लगती है, मानो वह जेठ मास की गरम रात से भी उष्णता में जेठी ( अधिक ) हो। वह रात जुटैल ( जूठी, अशुचि ),