साँचे देव दीनबंधु दीनता न राखी कहूँ,
आदर* उदार वसु बादर के वारि कै ;
मंदोदरी दरी में दुरयो है दौरि दारिद, निकारि दियो उदर दुरोदर को फारि को ।। ४६ ॥
छपद छबीले छीव पीवत सदीव रस , लंपट निपट प्रीति कपट ढरे परत ;
भंग भए मध्य अंग डुलत खुत्तत साँस , मृदुल चरन चारु धरनि धरे परत ।
देव मधुकर दूक दूकत मधूक धोखे, माधवी मधुर मधु लालच लरे परत ;
दुहु पर जैसे जलरुहु परसत, इहाँ मुहु पर झाई परे पुहुप मरे परत ।। ४७ ।।
यहाँ नायक से बहुत-सी नायिकाओं पर पृथक्-पृथक् प्रीति रखने का उपालंभ वर्णित है । छीव = उन्मत्त । पहले चरण में भ्रमर-रूपी नायक की कपट-भरी झूठी प्रीति का कथन है । दूसरे चरण में उसकी शारीरिक दशा का कथन आया है।
मधूक (महुवा) के धोखे से मधुकर ( मीठे नीबू ) पर
- सत्कार, औदार्य तथा संपत्ति-रूपी बादलों के जल से।
+ दारिद ( दरिद्र ) दुरोदर के उदर को फारिकै निकारि दियो, दौरि ( दौड़कर ) मंदोदरी ( छोटे पेटवाली) दरी में ( उदररूपी गुफा में ) दुस्यो (छिपा ) है।