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देव-सुधा


भक्ति

प्यास न भूख, न भूषन की सुधि, भाव सुभूषनसौं उपजावै, देव इकंतहि कंतहि के गुन गावति नाचति नेह सजावै ; प्रेम-भरी पुलकै मुलकै उर ब्याकुल कै कुल-लोकल जावा, लै परबी परबी न गनै कर बीन लिए परबीन बजावै ॥३॥

श्रद्धा

कान भुराई पै कान न आनतिप्रानन पान कथा न कढ़ी है: एकहि रंग रगी नख ते सिख एकहि संग बिबेक बढ़ी है;

  • अच्छे अलंकारों ( सजावटों, गुणों ) से भाव उत्पन्न करती है।

+ ( पति को देखकर ) प्रेम से भरी हुई पुलकै ( रोमांचित होती है ), तथा ( पति के ओट हुए) उर व्याकुल के मुलकै ( झाँकती है उसे देखने को ) तथा अपने भारी प्रेम से पूरे लोक को लजित करती है । यहाँ पति से प्रयोजन परमेश्वर का है, क्योंकि वर्णन भक्ति का हो रहा है।

+प्रवीण, पर्व को पकड़ के और पर्व की परवा भी न करके हाथ में वीणा लेकर बजाती है, अर्थात् पर्व में तथा विना पर्व भी,हर समय बजाया करती है। वीणा में जो पर्दे होते हैं, उन्हें भी पर्व कहते हैं । पर्व का यह अर्थ मानने से इस पद का यह प्रयोजन बैठेगा कि वीणा के पर्व पर हाथ रखकर पर्व ( होली, दिवाली आदि) की परवा न करके वह प्रवीणा वीणा हाथ में लेकर बजाती है, अर्थात् पर्व में तो बजाती ही है, वरन् विना पर्व भी बजाया करती है।

$भुराई (भुलाने, बहकाने की कानि मर्यादा ) पर कान नहीं लाती है, अर्थात् किसी बात पर अविश्वास की रीति पर नहीं चलती है।

मुख से एक बात छोड़कर दूसरी कथा ही नहीं निकलती, अर्थात् चित्त में पूरा इकंगीपन है।