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देव-सुधा


लिये जोक-बाज अनावश्यक है, और उसका छोड़ना ही ठीक है। एक यह भी बात है कि खेचरी मुद्रा से ब्रह्म का ध्यान आकाश में होता है।

देव दुति देखिबे को लोयन में लागी लखौ = यह भी भगवान का वचन है । शृंगार के अर्थ में यह प्रणय-निवेदन है कि देव कवि कहता है कि तुम्हारी शोभा देखने को हमारे नेत्रों में लगन है, सो देखो, और लोक-लाज की परवा छोड़ दो । आध्यात्मिक अर्थ में यह प्रयोजन है कि दैवी शोभा देखने को आँखों में (स्वाभाविक) लगन है, उसे देखो (मत भुलाश्रो), और लोक-लाज त्याग द्वारा योग से पुष्ट करो।

गो०- हमारी आँखों में शरम लगी है (हम शृंगारिक अथवा प्राध्यात्मिक साधनों के लिये लोक-लाज नहीं छोड़ सकतीं )।

भ० -यदि आँखों में लाज लगी है, तो उन्हें शोभा पाने दो, अर्थात् संसार को उसी दशा में आँखें देखने दो , जिससे लोक- लाज श्राप-ही-आप छूट जायगी।

गो०-हे हमारे कान्ह ! देखते क्या हो ? हमारे कपड़े दो। (अरे, इतनी देर करते हो) अब भी कपड़े दे दो, और व्रज में बसने दो; अर्थात् ऐसे उपद्रव करोगे, तो हम व्रज से उजड़ जावेगी।आध्यात्मिक प्रयोजन यह है कि योग हमें नापसंद है, तुम हमें व्रज में ही बसकर भक्ति करने दो। एक अर्थ यह भी निकल सकता है कि गोपी कहती हैं कि यह योग या लोक-लाज का परित्याग हमारे वश का नहीं है, तुम देखते क्या हो, ( कपड़े) दो। इस पर भगवान् का उत्तर है कि हमारे अर्थात् यदि तुम्हारे वश का नहीं है, तो हमारे का तो है। गंग-तरंगनि बीच बरंगिनि ठाढ़ी करें जपु रूप उदोती, देव दिवाकर की किरनैं निकसैं बिक मुख-पंकज जोती;