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देव-सुधा


के घर में उतरीं । उनके मैं पैर पड़ती हूँ। वही राधा तीनो लोकों को कल की पुतली के समान हाथ में लिए हुए (स्ववश किए ) अपने गुणों से बाँधकर नचा रही हैं।

तीर धज्यो जुगहीर गुहा गिरि धीर धो सु अधीर महा है, पूछती पीर भरे हग नीर, त्यों एकै समीर करें औ' सराहैं; छोर भिजै यक पोंछती चीर लै, राधे रहैं तिरछ। करि छाहैं, भेटती भीर अहीरन की बर बीरज की बलबीर की बाहे ॥४॥

गोवर्धन-धारण का वर्णन है। तीर धर यो = किनारे पर ( उतार- कर ) रख दिया । बर बीरज = श्रेष्ठ वीर्य ( पराक्रम)।

बारे बड़े उमड़े सब जैबे को, हौं न तुम्हें पठवों बलिहारी, मेरे तो जीवन देव यही धनु, या ब्रज पाई मैं भीख तिहारी; जाने न रीति अयाइन की, नित गाइन में बनभूमि निहारी, याहि कोऊ पहिचान कहा, कछु जानै कहा मेरा कुंजबिहारी॥५॥ जादव बृद्ध जौ लेन पठाए त तौ धनु गोधनु ले मबु जैयै, या लरिकाहि कहा करिहै नृप गोप-समूह सबै सँग हैयै ; तौ ही लौंजीवनु मो ब्रज, जौ लगि खेलतु सालिएबलभैयें, सर्बसुकंसु हरीन अभैx किन आँखिनु प्रोट करौन कन्हैय।।६॥

बेदन हूँ गने गुन गनै अनगने भेद, भेद बिन जाको गुन निरगुनहू यहै ;

ॐ गहिरा।

$ बलदेव के भाई अर्थात् कृष्ण ।

x अभी। .