प्रेम-पियूख-पयोधि मैं मिलत विमल निरद्द । न्यारो होत न एक है ज्यौं जल ते जल-बुंद ।। ३६ ।।
पूरन पुन्य उदोत जेहि प्रेम-पियूख-पयोधि । निकसी निरमल चंद्रिका, विकसी सब जग सोधि ।। ३७ ।।
प्रेमवती पदुमिनि हरै मधुकर-उर की प्यास । बूड़ि मरे बाल धूलि मैं कतकि पद-बिन्यास ।। ३८ ।।
प्रेम रूप रस बस करै तिय मैं प्रेम अनूप । यमकी-सी तिय प्रेम बिनु मनु आसीविष:-रूप ।। ३६ ॥
प्रेम कलह मध्या कलुष प्रौढ़ा मानम गर्ब । रोख दोख सों मिलत नहिं प्रेम पोष सुख पर्ब ॥ ४० ॥
तब ही लौं सिंगार रसु, जब लगि दंपति-प्रेम। मलिन होत रस प्रेम बिन ज्यों कलई को हेम ।। ४१ ।।
यह विचार प्रेमीन को बिषयी जन को नाँहि । विषय बिकाने जनन की प्रेमो छियत+ न छाँहि ॥ ४२ ॥
ऐसे ही बिन प्रेम रस नीरस रस सिंगार । प्रेम बिना सिंगार हू सकल रसायन सार ४ ॥४३॥
- अमृत।
- समुद्र
- सर्प ।
$ कवि दंपति-प्रेम से परिपूर्ण रस को ही शृंगार-रस मानता है।
+छुवत ।
x शृंगार विना प्रेम के नीरस है, किंतु विना श्रृंगार का भी प्रेम सरस है।