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देव-सुधा
 

खोरि-खोरि = गली-गली से। कोरि-कोरि रस = करोड़ों प्रकार के रस । लोरि-लोरि = लोट-लोट करके । घोरि-घोरि = घुल- घुलकर । प्रान-से प्रानपती सों निरंतर अंतर अंतर पार त हे री, देव कहा कहौं बाहे रहूँ घर बाहेर हूँ रहै भौंह तरे री; लाज न लागति लाज अहे तोहि जानी मैं आज अकाजिनि एरी. देखन दे हरि को भरि नैन घरी किन एक सरीकिनि मेरी।।२४७॥ मध्या नायिका की लाज का वर्णन है । स्वयं नायिका अपनी लाज को संबोधित करती हुई कथन करती है । अंतर अंतर = अंतःकरण से भेद । बाहे रहूँ घर = घर में तुझे (लाज को) लादे रहती हूँ। बाहेर हूँ रहै भौंह तरे री = बाहर भी मेरी भौंहें तरे ( नीचे ) रहती हैं । सरीकिनि = साथिन ; संग में रहनेवाली । 'शरीक'-शब्द से बना है। साँझ ही स्याम को लेन गई सु बसी बन में सब जामिनि जायक, मीरी बयारि छिदे अधरा उरझो उर भाँखर झार मझायकैः तेरीसि को करिहै कर तूति हुती करिबे सुकरी तैं बनायकै, भोर हीं आई भटू इत मो दुखदाइनि काज इतो दुखपायकै। अन्यसं भोगदुःखिता नायिका का वर्णन है। दुखदाइनि काज = मुझ दुःख देनेवाली के निमित्त ( नायिका के निमित्त)। आजु मिले बहुतै दिन भावते भेटत भेंट कछू मुख भाखौ , ये भुजभूषन मो भुज बाँधि भुजा भरिकै अधरा-रस चाखौ: