पहले ही प्रलय-समान दिन को प्राण क्योंकर रहेंगे (और यदि
किसी भाँति रहे भी), तो दूसरे दिन की दशा दुख-मूल के समान
होगी । अंतिम दोनो पद उत्कृष्ट हैं।
खरी दुपहरी हरी भरी फरी कुज मंजु ,
गुज अलि-पुजनि की देव हियो हरि जाति ;
सीरे नद-नीर तरु सीतल गहीर छाँह ,
सोवै परे पथिक पुकारें पिकी करि जाति ।
ऐसे मैं किसोरी भोरी कोरी कुम्हिलाने मुख
पंकज से पाय धरा धीरज सों धरि जाति ;
सौंहे घाम स्याम मग हेरति हथेरी प्रोट,
___ऊँचे धाम बाम चढ़ि आवति उतरि जाति ॥ २४३॥
उत्कंठिता नायिका का वर्णन है । गहीर = गंभीर; धनी । कोरी =
अछूती । सौंहे = सामने । मग हेरति - मार्ग की प्रतीक्षा करती है।
हथेरी भोट = हाथ की आड़ । दूर तक देखने को या सूर्य की किरण
बचाने को।
कैधौं हमारियै वार बड़ो भयो कै रबि को रथ ठौर ठयो हे* ,
भोर ते भान की ओर चितौति घरी पल हू गनतौ न गयो है ;
श्रावत छोर नहीं छिन का दिन को नहिं तासरो याम छयो है ,
पाइए कैसेक साँझ तुरंतहि देखु री दौस दुरंत भयो है ॥२४४॥
नायिका नायक की प्रतीक्षा करती है। बार = बारी - उसरी ।
छयो है = व्यतीत (क्षय ) हुआ है।
® या तो ( दिन । मेरी ही बारी में बड़ा हो गया है, या सूर्य
का रथ एक ही स्थान पर रुक गया है।
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देव-सुधा