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१२
देव-सुधा


दारिद उदर बिदार जसु आदर उदित उदार । जग अमंद आनंद गुन मंद कियो मंदार ॥६॥

धरयो निरंतर सात दिन गिरिवर गिरिधरलाल । उपजै हिय मैं धकधकी, थको न भुज केहु काल ।। ७ ।।

श्रीगुरुदेव कृगल की कृपा सुबुद्धि समीप । तिमिर मिटै, प्रगटै हृदय-मंदिर अनुभव-दीप ॥८॥

एक भक्ति गोपीन की प्रेम . भाव संसार। दूजी भक्ति बिरक्त जन दास्यताभाव बिचार ॥६॥

(२)
साहित्य

ऊँच-नीच तन कर्म-बस चल्यौ जात संसार । रहत भव्य भगवंत जसु नव्य काव्य सुख-सार ॥ १०॥

रहत न घर बर वाम धन तरुवर सरवर कूप । जस-सरीर जग में अमर भव्य काव्य-रस-रूप ॥ ११ ॥

अर्थ सब्द सुदर सरस प्रगट भाव रस प्रीति । उत्तम काव्य सुसब गुनन ागर नागर गति ।। १२ ।।

अनुप्रास अरु जमक जुत अदभुत बारह भाँति । इन्हें अछत नीकी लगै अलंकार की पाँति ॥ १३ ॥

गुण से कल्पवृक्ष मंद किया। दास-भाव । सखी-भाव तथा दास-भाव की भक्ति का कथन इस दोहे में आया है।

  • जो हैं। देव का मत है कि अनुप्रास और यमक युक्त होने से अलंकार अच्छे लगते हैं।