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देव-सुधा
 

चितै चैत-चंद्रिका महल चंद्रिका ते लिपि चली चंद्रमुखी जोर जोबन बनक ते ; गुपित गलीन लखि लाज भय लीन सुनि ___ लाल परबीन कर बीन की भनक ते। नूपुर अनूप सुर दाबत हथेरी उर, आवत न जात बनै श्राहट तनक ते; सासुन की सकुच उसासन गनति, उठि संकित तनत भौह किंकिनि-झनक ते ॥ २४० ॥ मुग्धा शुक्लाभिसारिका नायिका का वर्णन है । श्राहट = पाने-जाने का शब्द, जो चलने में पैर तथा दूसरे अंगों से होता है । उसासन गनति = श्वासों को गिनती है, अर्थात् श्वास के शब्द को भी छिपाती है कि कहीं कोई सुन न ले। ॐ चैत्र की चाँदनी को देखकर अपने चाँदनीवाले महल से जोबन के बनाव से (प्रसन्न ) शशि-वदनी प्रवीण नायक के हाथ की वीणा की झनकार को सुनकर एवं छिपी हुई गलियों को देखकर हया और डर से लीन ( तन्मय ) होकर शीघ्रता से छिपकर चली। + बिछुवा के अपूर्व स्वर को तथा हृदय को हथेली से दाबती हुई (चली तो), किंतु थोड़ी भी आहट के कारण आते-जाते नहीं बनता है। नायिका जेठियों के सकोच-वश अपनी साँसैं तक गिनती थी (कि कहीं ज़ोर से साँस न निकल जाय), तथा किंकिणी कीमनकार से भौंह उठकर तन जाती थी।