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१५०
देव-सुधा
 


१५० देव-सुधा उससे सत-हीन (सार-पदार्थ से रहित अर्थात् दुबली ) हैं, और उधर स्वजनों के साथ से भी उतर गई हैं । हे सखी ! यह स्नेह — मान ) के निबटाने का न्याय नहीं है, तुम जानती हो कि मैं जैसी (बड़ी उचित वक्ता ) हूँ। जिसके दखने-भर के लिये रोया करती हो, उससे क्रोध की बात ही क्या है ? बारियै बैस बड़ी चतुरै हो बड़े गुन देव बड़ाऐ बनाई , सुंदर हौ सुघा हौ सलोनी हौ सोल भरी-रस रूप सनाई ; गजबहू बलि राजकुमारि अहो सुकुमारि न मानौ मनाई , नैसिक नाह के नेह बिना चकचूर है जैहै सबै चिकनाई।।२३१।। अधमा सखी की कठिन शिक्षा मानिनी नायिका के प्रति है। नैसिक = थोड़ा (नैसर्गिक = शुद्ध स्वाभाविक )। ( २७ ) काव्यांग चोरी लगै चहुँघोर चितौतु, कलंक लगै मग मैं पगु दै री , दतनि दारि रहौं अंगुरी, अँगुरी कहुँ नेकु जुपै उघारी; देव दुरे रहिए हँसिए नहिं बैरिनि बैस किए जग बैरी, जो न घिरे रहिए घर मैं तौ घनेधिरि आवत हैंघर घेरी।।२३२।। स्वभावोक्ति । चितौतु = चितवत ( देखने से )। दैरी = एरी ! दए ( देने से )। नेकु = थोड़ी। बैस = अवस्था ( वयस); नवीन का अध्याहार है। धैरी = बदनामी करनेवाले। आई हौं देखि बधू इक देव सुदेखतै भूली सबै सुधि मेरी, राख्यो न रूप कळू बिधि के घर ल्याई है लूटि लुनाई कि ढेरी;