केतकी के हेत कीन्हे कौतुक कितेक तुम,
पैठि परिमल मैं गए हौ गड़ि गात ही;
मिले मल्लि-बल्लिन लवंग-संग हिले, दुरि
दाडिमनि पिले पुनि पाँडर को घात ही।
कीन्ही रस-केली साँझ चूमत चमेली बाँझ,
देव सेवतीन माँझ भूले भहरात ही;
गोद लै कुमोदिनि बिनोद मान्यो चहूँ कोद,
छपद छिपेही पदुमिनि में प्रभात ही॥२१८॥
नायक बहुतों से प्रेम करता है, इसका उपालंभ है। फूलों का वर्णन है। कितेक= कितने ही (बहुत-से)। परिमल= मकरंद। गात ही= शरीर-सहित (केवल मन ही से नहीं)। पिले= घुसे।भहरत ही= ज़ोर से गिरते हुए। कोद= तरफ़। छपद= षटपद (भौंरा)। सेवतीन = जंगली गुलाबों। मल्ली= बेला। बल्लिन= लताओं में। दुरि दाडिमनि पिले= छिपकर अनारों में घुसे। छिपकर कहने का यह प्रयोजन है कि दाडिम के तोड़ने में अधिक समय लगता है, सो एकांत में छिपकर उसे तोड़ा, जिसमें कोई दूसरा पाकर साझी न हो जाय। जिस काल इतना परिश्रम करके दाडिमों में घुसे थे, तब उसमें विराम करना था, किंतु ऐसा न करके भ्रमर ने फिर पाँडर (एक प्रकार की चमेली) में भी घात लगा रक्खी थी। चमेली बाँझ इसलिये कही गई है कि उसमें फल नहीं होते।
लागी प्रेम-डोरि खोरि साँकरी है कढ़ी आनि,
नेह सो निहोरि जोरि आली मन मानती;
उतते उताल देव आए नँदलाल, इत
सोहैं भई बाल नव लाल सुख सानती।