१३८ देव-सुधा नायिका-यदि चित्त में पति की कामना हो, तो शरीर चाहे मर भी जाय, किंतु स्नेह निभाना चाहिए । जी यदि धोखे में भी बुरी राह पर पैर धरे, तो उसे समझाकर राह दिखलाना चाहिए। नायक-अच्छी दशा में मन में फीकापन लाकर आँसू क्यों भरती हो, और ऊँची उसास से तुम्हारा गला क्यों भर-भर श्राता है ? नायिका-आप ही का रूप इन आँखों ने पान किया है । वह भरा है, सो भरा ही है, किंतु जो भरने से भी बचता है, वह ढरका पड़ता है। तात्पर्य यह है कि नायक अन्य स्त्री-रत है, जिससे व्यंग्य द्वारा नायिका कहती है कि उसका रूप नायिका के नेत्रों में इतना भरा है कि समाता तक नहीं है । जो रोने में आँसू गिरते हैं, वे मानो आँसू नहीं हैं, वरन् नायक का रूप है, जो नेत्रों में न समाकर बाहर ढरका पड़ता है। दोनो आदिम पदों में भी नायिका प्रकट में नायक से कोई शिकायत नहीं करती, वरन् यह दिखलाती है कि उसके कुमार्ग-रत होने के कारण जो नायिका का मन विचलित होता है, सो नायक का दोष न होकर उसी के मन का दोष है, और उसी मन को समझाना चाहिए। हित की हितू री, नहि तू रो समुझावै आनि, सुख दुख मुख सुखदानि को निहारनो ; लपने * कहाँ लौ बालपने की विकल बातें, __ अपने जनहि सपनेहू न बिसारनो। ॐ मुख का व्यवहार करना, लपन%D मुख ।
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