देव-सुधा १३५ देव जियै मिलिबे ही कि पास कि आसहू पास अकासरह्यो भरि, जादिन ते मुख फेरि हरे हँसि हेरि हियो जुलियो हरि जूहरि ॥ __कवि इस छंद में (विरह के वश) पंचतत्त्व - निर्मित शरीर का विनाश वर्णन करता है। समीर = वायु; यहाँ प्राण-वायु से प्रयोजन है। तेजु = अग्नि । तनुता = कृशता। वे बतियाँ छतियाँ तहकै दहकै विरहागिनि की उर आँचें, वा बसुरी को पर'यो रसुरी इन कानन मोहन मंत्र-से माँचें; कौ लगि ध्यान धरे मुनि लौ रहिए कहिए गुन बेद से बाँचें , सूझत ना सखि आन कछू निसि-दौस वई अखियान मैं नाँचें ॥ लहक = जलैं । माँचै = छा जा,मचैं। इभ - से भिरत, चहुँघाई सों घिरत घिन, श्रावत झिरत झीने झरसों झपकि - झपकि ; सोरन मचावै नचैं मोरन की पाँति चहुँ - ओरन ते कौंधि जानि चपला लपकि - लपकि। बिन प्रानप्यारेक प्रान न्यारे होत, देव कहै नैन बरुनीन रहे अँसुवा टपकि-टपकि ; रतिया अँधेरी, धीर न तिया धरति, मुख बतिया कदै न, उ7 छतिया तपाक-तपकि ।। २०३ ॥ इभ-से = हाथी-समान। चहुँघाई = चारो तरफ़ से।झिरत = गिरना, झिरना । झीने = पतले । झरसों = छोटी बिंदुओं की वर्षा करते हुए। कौंधि = चमक जाना । झपकि-झपकि = घिर-घिरकर । ® प्राण ही दूसरे हो जाते हैं।
पृष्ठ:देव-सुधा.djvu/१३९
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।