वेई ससि • सूरज उवत निसि - दौस, वही
नखत - समूह झलकत नभ न्यारो सो;
वेई देव दीपक समीप करि देखे, वही
दून्यौ करि देख्यो चैत पून्यौ को उज्यारो-सो।
वेई बन • बागन बिलोकै सीस • महल,
कनक मनि मोती कळू लागत न प्यारो सो;
वाही चंदमुखी की बा मंद मुसुकानि बिन
जानि परो सब जग अधिक अँध्यारो-सो ॥ १६२ ॥
वेई = वही । उवत = उदय होते हैं । दून्यौ करि देख्यो = दुगना देखा, अर्थात् बहुत देखा।
घोर लगै घर बाहिरहू डर नूत न नूत दवागि जरे-से , रंगित भीतिन भीति लगै लाख रंगमही रनरंग ढरे-सेक धूम घटागर धूपन को निकसै नवजालन ब्याल भरे-से। , . जे गिरि-कंदर-से मनि-मंदिर आज अहा उजरे उजरे-से॥१९॥
घोर डर - अतिशय भय । रंगमही = विलास-स्थान । धूम घटा- गर = अगर के धूम का समूह । अगर की लकड़ी जलाने से सुगंधि देती है । नूत न नूत = जो नए नहीं (अर्थात् पुराने) हैं, और जो नए हैं, वे दोनो दावानल से जले हुए दिखाई देते हैं । नूत आम को भी कहते हैं।
- रँगी हुई दीवारों को देखकर डर लगता है, तथा विहार-स्थल
देखकर ( ऐसा भान.होता है कि ये ) ढाले हुए ( पूरे ) युद्धस्थल हैं ।
+ धूपों (सुगंधित धूमवाली धूप ) तथा अगर के धूम की घटानों का समूह नहीं निकलता है, वरन् उसमें नवीन सर्प-मे भरे हुए हैं। व्यालों में नवीनता यह है कि वे भाग से निकलते हैं।
- उ(वे ) जलकर उजड़-से गए हैं।