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देव-सुधा

इस छंद में नायिका अपने प्रेमाधिक्य का कथन करती है।

दुहू विधि सोध = दोनो प्रकार (चित्त के भीतर-बाहर)का खोज । सोरकै = शोर करके । जुपै = यदि । हा! = विस्मय । करेरे = पैने । सटि जाइ न = चिपक न नाय, अर्थात् ऐसा छिप जाय कि खोजे न मिले । नटि जाइ न = नष्ट न हो जाय, चला न जाय । मोहि = मोहित होकर

(२१)
मन

रूप को रसिकु रसलंपटु परस लोभी

राग ही सौं रँग्यो बसै बासु लै अड़ाइतो ;

मारयो नहीं जातु बिनु मारे न डेरातु घरी

काम कर खोटे छोटे बड़े सों बड़ाइतो।।

होइ जो हमारो कोई हितू हितकारी यासों

कहै समुझाय देव कुमति छड़ाइतो;

मानै न अनेरो, मनु मेरो बहुतेरो कह्यो,

पूतु ज्यों कपूतु लरिकाई को लड़ाइतो ॥ १८२ ।।

तेरो कह्यो करि-रि जीव रह्यो जरि-जरि,

हारी पाँय परि-परि तऊ तें न की सँभार ;

ललन बिलोकि देव पल न लगाए तब,

यों कल न दीनी ते छलन उछलनहार ।

  • अड़ियल, हठी (पाँचो इंद्रियों के सुखार्थ मचलनेवाला)।

+ छोटे और बड़े से अपने को बड़ा समझता है।

  • अनियारा, अनोखा।
  • हे मन ! तू छलने के लिये उछलता ( उत्तेजित होता) है।