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देव-सुधा

चीकनी सुहाग नेह हैम की सराँग पर

प्रेम-पाउ परत न राह रपटन की ।

बरतनु बरत उबारिए सुरत-बारि

वारियै न बिरह-बयारि झपटन की +;

देवजू विदेह दाह देह दहकति आवै

आँचल-पटनि ओट आँच लपटन की ॥१४८॥

विरह-निवेदन है।

हेम की सराँग पर कंचन के खंभ पर । यहाँ खंभ से उस मलखंभ का प्रयोजन है, जो तेल आदि लगाकर चिकना किया जाता है, और जिसके सहारे से नट कला करते हैं । बरतनु बरत उबारिए सुरत-बारि=अच्छे शरीर की दाह को स्मरण-जल से शांत कीजिए।

पीछे तिरीछे कटाच्छन सों इत वै चितवै रा लला ललचो हैं, चौगुनो चाउ चबान के चित चाह चढ़े हैं चबाउ मचो हैं;

  • सौभाग्य भव प्रेम का जो सोने का मलखंभ है, वह

चीकना होने से उस पर रपटने की राह है, सो उस पर प्रेम का पैर नहीं जमता है । प्रयोजन यह है कि प्रेम पर स्थिरता के लिये बड़ी दृढ़ता की श्रावश्यकता है।

+ ( नायिका का) श्रेष्ठ शरीर (विरहाग्नि से) जलता है, उसको विरह-बयारि के झपटों (की तेज़ी) को बचाइए तथा सुरत-रूपी जल से उसे उबारिए ।

+कामदेव । $ आँचल-पटों को प्रोट भी विरहाग्नि की लपटों की आँच लगती है।