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देव-सुधा

चख के चखक भरि चाखत ही जाहि फिरि चाख्यो ना पियूष कछु ऐसो अभिरामु है;

दंपति सरूर ब्रज औतर यो अनूप सोई देव कियो देखि प्रेम रस प्रेम नामु है ॥ १४२ ।।

चखक ( चषक ) = मद्य पीने का पात्र । चख = चनु । अभिरामु =आनंददायक ।

एकै अभिलाख लाख - लाख भाँति लेखियत, देखियता दूसरो न देव चराचर मैं ;

जासों मनु राचे तास तनु - मनु राचे, रुचि भरि कै उघरि जाँचै साँचै करि कर मैं ।

पाँचन के आगे आँच लागे ते न लौटि जाय, साँच देह प्यारे की सतो लौ बैठि सर मैं;

प्रेम सो कहत कोई ठाकुर न ऐंठौ, सुनि

बैठो गड़ि गहिरे तौ पैठौ प्रेम-घर मैं ॥ १४३ ॥
  • वह प्रेम कुछ ऐसा रम्य है कि नेत्र के प्याले में भरकर जिसने

उसे पिया, उसने फिर अमृत को भी न चक्खा ( अर्थात् अमृत की भी परवा न की )।

+ प्रेमी के अतिरिक्त चराचर में कोई दूसरा देखता ही नहीं ।

+लौ-सर ( ज्वाल के तालाब) में प्यारे (शिव) की सती की भाँति बैठकर सत्यता प्रकट करे। जैसे सतीजी ने अग्नि में पैठकर शिव की सत्यता तथा उनमें अपना प्रेम प्रकट किया, वैसे ही अपने पति में शुद्ध स्वकीया प्रेम रक्खे । यह भी अर्थ है कि सती लौ ( की भाँति ) सर ( सरा, चिता) में बैठकर ।

$ प्रेम उसे कहते हैं, जिससे कोई स्वामित्व का अहंकार नहीं कर सकता । यदि प्रेम का नाम ही सुनकर गड़कर गहरे में बैठो ( पूरी नम्रता रक्सो), तो प्रेम के घर में प्रवेश करो।