इस छंद में कवि ने नायिका का अच्छा चित्र प्रदर्शित किया है।
परबीन = प्रवीण, चतुर । बीनैं = बटोरती हैं।
पंत रंग सारी गोरे अंग मिलि गई देव, श्रीफल-उरोज-भाभा आभासै अधिक-सी ;
छूटी अलकनि छलक नि जल - बूंदन की, बिना बंदी बंदन बदन - सोभा बिकसी।
तजि-तजि कुज - पुंज ऊपर मधुप - गुज गुजरत मंजु रव बोलै बाल पिक-सी ;
नीबी उकसाइ, नेकु नयन हँसाय, हँसि ससि मुखी सकुचि सरोवर तें निकसी ॥ १३४ ।।
नायिका के स्नान का वर्णन है । बंदन = इंगुर ।
औचक ही चितई भरि लोचन वा रस के बस लै चुकी चेरियै, मोहक मोहूपै ही नहीं सूझत बूमत स्याम घने तम घेरियै ; आँनद के मद के नद मैं मनु बूड़ि गयो हद में नहीं हेरियै , कै उलटो सब लोक लगै किधौं देव करीउलटीमतिमेरियै॥१३॥ नायिका के प्रेमाधिक्य का वर्णन है ।
- हे मोहनेवाले, मैं स्वयं अपने को नहीं दिखाई देती । जान
पड़ता है, कृष्ण-रूपी घने अंधकार ने मुझे घेर लिया है। नायिका नायक पर एक ही दृष्टि से उन्मत्त हो गई है।