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देव-सुधा
 

केवल राधिकाजी के चरणों का वर्णन एवं उन चरणों की वंदना कृष्णचंद्रजी से कराई जा रही है । चुनी = माणिक्य के छोटे टुकड़े। जावक = महावर । रंजित = रँगे हुए । मंजु = सुंदर। देव सुबरन गुन बीध्यो है मधुर महा, अधर सधा के अखारे सुख ढार मैं *; थिरकत थान तान तोरत तर योनन सों, बोलन कपोलन के बिमल बिहार मैं।। मनोरथ चढ्यो मनमथ के अथक पथ , नथ को पे न थको निरत निराधार मैं ; मोती लटकन को नवल नट नाचत, ____नयन निरतत हैं चटुल चटसार मैं ॥१३१॥ . ..... ॐ देव कहता है कि लटकन सोने के तार से गूथा है, तथा सुख में ढले हुए महामधुर अधर सधर ( नोचे के तथा ऊपर के ओंठ) के अखाड़े में (नाचता) है। __ + नायिका के बोलने में जब विमल कपोल ( गाल) विहार करते ( हिलते-डोलते ) हैं, तब लटकन अपने स्थान पर ताल देकर नाचता तथा कर्णफूलों से तान तोड़ता है, अर्थात् कर्णफूल और लटकन दोनो बोलने में साथ-ही-साथ ऐसे हिलते हैं, मानो एक दूसरे से तान तोड़ते हैं। लटकन मनोरथ ( वांछा) है, जो कामदेव के अथक (न थकनेवाले ) मार्ग पर चढ़ा हुआ है । वह यद्यपि नथ (बेसरि ) का अंग है, तथापि निराधारता पर निश्चय-पूर्वक रत होने से भी नहीं थकता है । प्रयोजन यह है कि (आधार-शून्य ) लटका हुआ होने पर भी वह थकता नहीं है । जैसे नट थोड़ा-सा आधार लिए