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महाराज ने कहा—"श्रेष्ठिराज, यह सौभाग्य तुम्हें भगवान् श्रीज्ञान की कृपा से मिला है। उन्होंने मंजुघोषा और उसके पुत्र की प्राण रक्षा की। और बड़े कौशल से मूर्ति के स्थान पर उसे प्रकट किया।"

सुनयना ने करबद्ध होकर कहा—"तो भगवान्, आप ही मेरे बच्चे के चोर हैं?"

"यह कार्य भी मुझ वीतराग पुरुष को करना पड़ा। जब मंजु को मैंने जंगल में असहाय वृक्ष के नीचे मूर्छितावस्था में पड़ा देखा, तो उसे मैं अपने आश्रम में उठा लाया। उपचार से वह स्वस्थ हुई तो बच्चे के लिए उसने बहुत आफत मचाई। मैं जानता था कि तुम राजी से बच्चा मुझे न दोगी। मंजु का जीवित रहना मैं तुम पर प्रकट करना नहीं चाहता था- इसी से चौर्यकार्य मुझे करना पड़ा। अब बुद्ध शरणं।"

"भगवान्, मैं तो ऐसी अन्धी हो गई कि पुत्री को अरक्षित छोड़कर भाग निकली, परन्तु मुझे बालक की रक्षा का विचार था।"

"यह सब भवितव्य था जो अकस्मात् हो गया।"

"किन्तु भगवन्, यहाँ मूर्ति के स्थान पर मंजु कैसे आ गई?"

"यह हमसे पूछिए," सुखदास ने आगे बढ़कर कहा—"हम लोग जब स्थान आदि की सुव्यवस्था करके वृक्ष के निकट पहुँचे, तो वहाँ कोई न था। इससे हम बहुत व्याकुल हुए। सारा जंगल छान मारा। तब भगवान् के हमें दर्शन हुए। और जब मंजु को हमारी देख-रेख में छोड़कर भगवान् बच्चा चुराने के लिए गये, तो हमने मिलकर यह योजना बना ली। फिर तो मूर्ति को अपने स्थान से हटाकर वहाँ मंजु को बैठा देना आसान था। परन्तु चमत्कार खूब हुआ!"

यह कहकर सुखदास हँसने लगा। सभी लोग हँस दिए।

सुखदास ने वृद्ध ग्वाले की ओर संकेत करके कहा—"इन महात्मा ने प्राणपण से मंजु की सेवा करके प्राण बचाये। हमारी योजना न सफल होती यदि यह मदद न करते।"

ग्वाले ने चुपचाप सबको हाथ जोड़ दिए। आचार्य श्रीज्ञान ने कहा—"यह सब विधि का विधान है लिच्छवि-राजमहिषी?"

राजा ने अकचकाकर कहा—"यह आपने क्या शब्द कहा! लिच्छवि राजमहिषी कौन!"

"महाराज, यह देवी सुनयना लिच्छविराज श्री नृसिंहदेव की पट्टराजमहिषी कीर्तिदेवी हैं, जिन्हें काशिराज ने छल से मारकर उनके राज्य को विध्वंस किया था। मंजुघोषा इन्हीं की पुत्री हैं।"

महाराज ने कहा—"महारानी, इस राज्य में मैं आपका स्वागत करता हूँ। और राजकुमारी, आपका भी तथा कुमार को मैं वैशाली का राजा घोषित करता हूँ, और उनके लिए यह तलवार अर्पित करता हूँ जो शीघ्र काशिराज से उनका बदला लेगी।"

रानी ने कहा—"हम दोनों-माता पुत्री-कृतार्थ हुईं। महाराज, आपकी जय हो। अब इस शुभ अवसर पर यह तुच्छ भेंट मैं दिवोदास को अर्पण करती हूँ।"

उसने अपने कण्ठ से एक तावीज निकालकर दिवोदास के हाथ में देते हुए कहा—"इसमें उस गुप्त रत्नकोष का बीजक है, जिसका धन सात करोड़ स्वर्ण मुद्रा है।"

"पुत्र, मुझ अभागिन विधवा का यह तुच्छ दहेज स्वीकार करो।"