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आज्ञा दी—"सेनापति, इन उन्मत्त भिक्षुओं को घेर लो।"

क्षण-भर ही में सेना ने समस्त भिक्षु मण्डली को तलवारों की छाया में ले लिया। आतंकित होकर भिक्षु मन्त्रपाठ भूल गए। जनता भयभीत हो भागने की जुगत सोचने लगी।

वज्रसिद्धि ने क्रुद्ध होकर कहा—"महाराज, यह आप अधर्म कर रहे है।"

महाराज ने कहा—"मैं यह जानना चाहता हूँ आचार्य, यह कैसा धर्म-कार्य हो रहा है?"

"देव, आप धर्म व्यवस्था में बाधा मत डालिए।"

"परन्तु मैं पूछता हूँ कि यह कैसी धर्म व्यवस्था है!"

"आप अपने गुरु का अपमान कर रहे हैं।"

"मेरी बात का उत्तर दें आचार्य, क्या आपने काशिराज से मिलकर मेरे विरुद्ध षड्यन्त्र नहीं किया? श्रेष्ठिराज धनंजय के धन को हड़पने के लिए उनके पुत्र को अनिच्छा से भिक्षु बनाकर उसे गुप्त यन्त्रणाएँ नहीं दी हैं? क्या आप लिच्छविराज के गुप्त धन को पाने का षड्यन्त्र नहीं रच रहे हैं?"

"देव, इन अपमानजनक प्रश्नों का मैं उत्तर नहीं दूँगा।"

"तो आचार्य वज्रसिद्धि, इन आरोपों के आधार पर मैं आपको आचार्य पद से च्युत करता हूँ और बन्दी करता हूँ।" उन्होंने सेनापति से ललकार कहा :

"सेनापति इन्द्रसेन, वज्राचार्य और इनके सब साथियों को अपनी रक्षा में ले लो। तथा संघाराम और उसके कोष पर राज्य का पहरा बैठा दो। तुम्हारे काम में जो भी विघ्न डाले उसे बिना विलम्ब खड्ग से चार टुकड़े करके संघाराम के चारों द्वारों पर फेंक दो!" सेनापति ने अपनी नंगी तलवार आचार्य के कन्धे पर रखी।

वज्रसिद्धि ने कहा—"भिक्षुओ, यह राजा पतित हो गया है। इसे अभी मार डालो।"

भिक्षुओं में क्षोभ उत्पन्न हुआ; सैनिक शस्त्र लेकर आगे बढ़े।

अब श्रीज्ञान ने दोनों हाथ ऊँचे करके कहा—"सावधान, भिक्षुओ! यह श्रीज्ञान मित्र तुम्हारे सम्मुख खड़ा है। तुमने तथागत के वचनों का अनादर किया है। बन्धु प्रेम के स्थान पर रक्तपात, अहिंसा के स्थान पर माँसाहार, संयम के स्थान पर व्यभिचार और त्याग के स्थान पर लोभ ग्रहण किया है जिससे तुम्हारे चारों व्रत भंग हो गये हैं। तुमने भिक्षु वेश को कलंकित किया है, और तथागत के पवित्र नाम को कलुषित किया है। मैं तुम्हें आदेश देता हूँ कि अपने आचरणों को सुधारो, या भिक्षुवेश त्याग दो।"

सहस्र-सहस्र भिक्षु श्रीज्ञान के सम्मुख घुटनों के बल बैठ गए। महाराज ने कहा—"भिक्षुओ, तुम्हारे अनाचार की बहुत बातें मैंने सुनी हैं। प्रजा तुम्हारे अत्याचारों से तंग है। तुम्हारे गुरु घण्टाल का भण्डाफोड़ हो गया है। मैं चाहता हूँ, भगवान् श्रीज्ञान के आदेश का पालन करो। अपने-अपने स्थान को लौट जाओ।"

भिक्षुओं ने एक स्वर से महाराज और ज्ञानश्री मित्र का जय-जयकार किया।

महारजा ने कहा—"श्रेष्ठि धनंजय, आओ अपने पुत्र-पौत्र और पुत्र-वधू को आशीर्वाद दो।"

धनंजय दौड़कर पुत्र से लिपट गया। दिवोदास ने पिता के चरणों में गिरकर अभिवादन किया। मंजु ने भी सबको प्रणाम किया और बच्चे को श्वसुर की गोद में दे दिया।