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प्रेमोन्माद




दिवोदास पागल हो गया है। यह सन्देश पाकर आचार्य ने उसे बन्दी गृह से मुक्त कर दिया। अब वह निरीह भाव से संघाराम में घूमने लगा। कोई उससे घृणा करता, कोई उस पर दया करता। उसके वस्त्र और शरीर गन्दे और मलिन हो गए थे। दाढ़ी बढ़कर उलझ गई थी। भिक्षु उसकी खिल्ली उड़ाते थे। कुछ उसे चिढ़ा देते थे। परन्तु दिवोदास इन सब बातों पर ध्यान ही नहीं देता था। वह जैसे किसी अतीत काल में जीवित रह रहा था।

दिवोदास अति उदास, गहरी चिन्ता में पागल जैसा एक शिलाखण्ड पर बैठा था। वह कभी हँसता, कभी गुनगुनाता था। उसके हाथ में एक गेरू का टुकड़ा था, उससे वह जल्दी-जल्दी मंजुघोषा का चेहरा बना रहा था, चेहरा बनाकर हँसता था, उसे प्यार करता था, उससे बातें करता था, एक वृक्ष को लक्ष्य करके उन्मत्त भाव से देखता था। वहाँ उस वृक्ष में उसे मंजुघोषा दृष्टि पड़ रही थी।

दिवोदास-हाथ फैलाकर दीन भाव से बोल उठा—"आओ देखो, प्यारी, आओ, मुझे क्षमा करो, मैं नहीं आ सका।" उसने देखा-मूर्ति मुस्कराने लगी। उसके होंठ हिलने लगे और दो बूँद आँसू उसकी आँखों से टपक पड़े। उसने उँगली उठाकर कहा—"झूठे।" पागल दिवोदास उससे लिपटने को दौड़ा और टकराकर गिर पड़ा। मूर्ति गायब हो गई। उसने उठकर कहा—"आह! झूठा, झूठा, सचमुच मैं झूठा हूँ।" उसने सामने एक शिलाखण्ड की ओर देखा। वहाँ मंजु बैठी मुस्करा रही थी। वह दौड़ा, मूर्ति उसी भाव से वही शब्द कहती हुई गायब हो गई। दिवोदास पत्थर से टकराकर फिर गिर पड़ा। फिर उठकर 'मंजु-मंजु' चिल्लाने लगा। जिस वस्तु पर उसकी नजर जाती, वहीं उसे मंजु की मूर्ति वही संकेत करके, वही शब्द कहकर गायब हो जाती। वह पागल की तरह दौड़ता और टक्करें खाकर गिरकर घायल हो जाता। वह क्षत-विक्षत और जर्जर हो गया। उसी समय आचार्य वज्रसिद्धि उसके निकट आए।

वज्रसिद्धि कुछ देर उसकी दुर्दशा देख बोले—"पुत्र, यह तुम क्या कर रहे हो?"

दिवोदास ने आँखें फाड़कर बड़ी देर तक वज्रसिद्धि को देखा और वज्रसिद्धि के

निकट आकर कहा-"प्रिय मंजु, क्या तुमने मुझे क्षमा कर दिया!" और वह वज्रसिद्धि से लिपट गया।

वज्रसिद्धि ने उसे पीछे धकेलकर कहा—"भिक्षु, सावधान! देखो, मैं संघस्थविर आचार्य वज्रसिद्धि हूँ।”

दिवोदास आचार्य को देखकर, काँपता हुआ हटकर खड़ा हो गया और