तुम नहीं जानते तो चुप रहो।
फिर उन्होंने वज्रसिद्धि की ओर दृष्टि करके कहा—"आचार्य, आपके भिक्षु ऐसा ही विनय सीखते हैं?"
वज्रसिद्धि ने कहा—"महाराज, मैं उसका धर्मानुशासन करूँगा, अरे भिक्षुओ! उस उन्मत्त भिक्षु को ले जाओ।"
फिर उसने काशिराज से कहा—"महाराज, अब आप यज्ञ सम्पूर्ण कीजिए। कामना करता हूँ कि उसमें बाधा न उपस्थित हो।"
दिवोदास को भिक्षुगण बाँधकर एक ओर तथा मंजु को सैनिक दूसरी ओर ले चले।
मंजु ने कहा—"प्राणनाथ, नदी तीर की वह प्रतिज्ञा याद रखना।"
दिवोदास ने कहा—"उसे जीते जी नहीं भूलूँगा।"
"तुम्हें आना होगा, कहो आओगे?"
"आऊँगा प्रिये, आऊँगा।"
"तो मैं तुम्हारी प्रतीक्षा करूँगी।"
"मैं प्राणों पर खेलकर भी आऊँगा।"
दोनों को दो भिन्न-भिन्न दिशाओं में खींचकर ले जाया गया। सुखदास और वृद्ध ग्वाला रह गए। सुखदास ने कहा—"मैं भी भिक्षु हूँ, मेरा धर्मानुशासन आचार्य करेंगे।"
आचार्य ने कहा—"इन दोनों अपराधियों को भी महाराज मेरे ही सुपुर्द कर दें।"
काशिराज ने स्वीकार किया। आचार्य उठकर चल दिए। आवास पर आने पर सुखानन्द ने कहा—"मैं एक आवश्यक निवेदन एकान्त में करना चाहता हूँ।"
आचार्य ने एकान्त में ले जाकर कहा—"क्या करना चाहते हो तुम?"
"आचार्य, मैं निरपराध हूँ, और यह वृद्ध भी।"
"तू निरपराध कैसे है?"
"आचार्य के विरुद्ध सिद्धेश्वर महाराज ने जो षड्यन्त्र रचा था-मैं उसी की छानबीन कर रहा था, आचार्य? मुझे अपना कार्य करने दीजिए।"
"कौन-सा कार्य।"
"आचार्य उस देवदासी को यहाँ से ले जाना चाहते हैं न!"
"चाहता तो हूँ।"
"पर सिद्धेश्वर की उस पर कुदृष्टि है।"
"यह मैं देख चुका हूँ।"
"परन्तु मैं उसे यहाँ से उड़ा ले चलूँगा।"
"किस प्रकार?"
"यह मुझ पर छोड़ दीजिए आचार्य।"
"किन्तु धर्मानुज जो है।"
"वह तो आपके अधीन है आचार्य, वह कर क्या सकता है!"
"और यह बूढ़ा मूर्ख कौन है?"
"एक गँवार है आचार्य, लोभ-लालच देकर अपनी सहायता के लिए रख लिया है।"