वह सारा मद्य दिवोदास के पेट में उड़ेल दिया। भय से अभिभूत हो मंजु ने भी मद्य पी ली।
तब उन यमदूतों ने उन दोनों को बलियूथ से कसकर बाँध दिया। फिर बड़बड़ाकर मन्त्र पाठ
करने लगे।
मंजू ने लड़खड़ाती वाणी से कहा—"प्यारे, मेरे कारण तुम्हें यह दिन देखना पड़ा।"
"प्यारी, इस प्रकार मरने में मुझे कोई दु:ख नहीं।"
"परन्तु स्वामी, हम फिर मिलेंगे।"
"जन्म-जन्म में हम मिलेंगे, प्रिये-प्राणाधिके।"
इसी समय कापालिक ने आकर कहा—"प्राणियो, आज तुम्हारा अहोभाग्य है, तुम्हारा शरीर देवार्पण होता है।" उसने रक्त से भरा पात्र उठाकर थोड़ा रक्त उनके मस्तक पर छिड़का फिर उनके माथे पर रक्त का टीका लगाया। एक दैत्य ने झटका देकर उनकी गर्दनें झुकायीं। उन पर कापालिक ने स्वस्ति का चिह्न बना दिया। उसके बाद उन दैत्यों ने सिन्दूर से वध्य-भूमि पर भैवरी-चक्र की रचना की। एक दैत्य भारी खांडा ले दिवोदास के पीछे जा खड़ा हुआ।
मंजु ने साहस करके चिल्लाकर कहा—"अरे पातकियो, पहिले मेरा वध करो, मैं अपनी आँखों से पति का कटा सिर नहीं देख सकती।"
कालापिक ने एक बड़ा-सा मद्य पात्र मुँह से लगाया और गटागट पी गया। फिर उसने गरजकर वार करने की आज्ञा दी।
परन्तु इसी क्षण एक चमत्कार हुआ। ब्रह्मराक्षस का खांडा हवा में लहराता ही रहा, और उसका सिर कटकर पृथ्वी पर आ गिरा।
कापालिक क्रोध और भय से थरथरा उठा। उसने कहा—"अरे, किसने महामाया की पूजा भंग की?"
सुखदास ने रक्त-भरा खड्ग हवा में नचाते हुए कहा—"मैंने, रे पातकी! अभी तेरा धड़ भी शरीर से जुदा करता हूँ।"
इसी बीच वृद्ध ग्वाले ने दिवोदास और मंजु के बन्धन खोल दिए। मुक्त होते ही दिवोदास ने झपटकर खांडा उठा लिया। उसने कापालिक पर तूफानी आक्रमण किया। परन्तु कापालिक में बड़ा बल था। उसने खांडे सहित दिवोदास को उठाकर दूर पटक दिया। इसी समय सुखदास का खड्ग उसकी गर्दन पर पड़ा। और वह वहीं लड़खड़ाकर गिर गया। वृद्ध ने भी एक यमदूत को भूमिशायी किया। शेष दो प्राण लेकर भाग गए। दिवोदास घाव खा गये थे। सुखदास ने हाथ का सहारा दे दिवोदास को उठाया। और बोला—"साहस करो भैया, यहाँ से भाग चलो।"
दिवोदास ने कन्धे पर मंजु को लाद लिया। दोनों व्यक्ति नंगी तलवार लिये साथ चले। वर्षा अब बन्द हो गई थी। आकाश स्वच्छ हो गया था। वे बराबर उत्तराभिमुख होते जा रहे थे। मद्य के प्रभाव से मंजु मूर्च्छित हो गई थी। दिवोदास के भी पाँव लड़खड़ा रहे थे। परन्तु वह साथियों के साथ भागा जा रहा था। मंजु उसकी पीठ से खिसकी पड़ती थी। सुखदास उन्हें सहारा दे रहा था। इसी समय एक और से दल अश्वारोही सैनिकों ने उन्हें घेरकर बन्दी बना लिया। सारा उद्योग विफल गया। बेचारे को बाँधकर ले चले। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये सिद्धेश्वर के सैनिक थे।